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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जोहानिसबर्गके अपने प्रायः सम्पूर्ण निवास-कालमें उन्होंने भारतीयोंके लिए जो विशेष कार्य किया, वह पाठकोंको भली-भाँति मालूम है और उन्हें यहाँ दोहरानेकी जरूरत नहीं है। किन्तु यह बात बहुतोंकी मालूम नहीं होगी कि वे भारतीय कार्यके लिए बिना बुलाये अपने-आप ही आये थे। वे सदा एक साधक रहे; सदा दुर्बलों और उत्पीड़ितोंके मित्र रहे। इसलिए ज्यों ही वे जोहानिसबर्ग आये, उन्होंने उन समस्याओंकी खोज शुरू कर दी जिनमें जनताका ध्यान लगा था। उन्होंने पाया कि भारतीयोंकी समस्या भी उनमें से एक है, इसलिए वे तुरन्त भारतीय नेताओंसे मिले, उनसे स्थितिकी जानकारी प्राप्त की, सवालके दूसरे पहलू का अध्ययन किया और भारतीय प्रयोजनको पूर्णतः न्याय्य-पाकर अपूर्व उत्साह और निष्ठासे उसमें लग गये। अपने सम्प्रदायकी श्रोतामण्डलीमें उनकी लोकप्रियता नष्ट होनेका खतरा पैदा हो गया, किन्तु यह खतरा उन्हें डिगा नहीं सका। जब इस पत्र [इंडियन ओपिनियन के सम्पादक महोदय' भारत गये हुए थे उस समय श्री डोक ही इसका पथ-प्रदर्शन करते रहे और लगभग छ: मासकी उस अवधिमें एक भी ऐसा सप्ताह नहीं गुजरा जब श्री डोकने अपने योग्यतापूर्वक लिखे और जानकारीसे भरपूर अग्रलेख पत्रको न भेजे हों। इसके अलावा श्री कैलेनबैकके साथ उन्होंने ब्रिटिश भारतीय संघकी कार्रवाइयोंका, उसके इतिहासके अत्यन्त नाजुक समय में, मार्गदर्शन किया। जब वे अपने गिरजेके कार्यसे अमेरिका जाने लगे तब कृतज्ञ [भारतीय ] समाजने उनके सम्मानमें प्रीतिभोज दिया था, जिसकी अध्यक्षता श्री हॉस्केनने की। उस अवसरपर श्री डोकने जो शब्द कहे थे वे आज भी सुननवालोंके कानोंमें गूंज रहे हैं। श्री डोकके विषय में सचमुच यह कहा जा सकता है कि वे अच्छी तरह जिये और अच्छी तरह मरे। यह विचार उनके परिवारके सदस्योंको सांत्वना और धीरज प्रदान करेगा कि उनके अलावा और भी बहुत-से लोग उनके देहावसानपर शोक मना रहे हैं। उनकी मृत्युसे उनके परिवारकी जितनी क्षति हुई है उतनी ही उन लोगोंकी भी हुई है जो श्री डोकसे प्रेम करने लगे थे।

स्वर्गीय रेवरेंड जोजेफ जे० डोक ५ नवम्बर, १८६१को चडली (डेवनशायर) में पैदा हुए थे। वे दो भाई थे। उनके पिता चडलीके बैपटिस्ट पादरी थे। उनके बड़े भाई स्वर्गीय विलियम एच० डोक, जो उनसे लगभग ढाई साल बड़े थे, आफ्रिकामें धर्म-प्रचारक (मिशनरी) थे, और १८८२के अन्तमें यहीं उनकी मृत्यु हुई थी।

अपने दुर्बल स्वास्थ्यके कारण स्वर्गीय रेवरेंड डोक बहुत कम स्कूली शिक्षा ले पाये थे। १६ सालकी उम्रमें उनकी माँका देहान्त हो गया। जब वे १७ सालके थे तब उनके पिताने पादरीके पदसे इस्तीफा दे दिया और उनकी जगह इनकी नियुक्ति हुई। २० सालकी उम्रमें वे दक्षिण आफ्रिका आये, जहाँ वे थोड़े समय तक केप टाउनमें रहे। बाद में वे दक्षिण आफ्रिकाके बैपटिस्ट संघ द्वारा ग्रेट रीनेटमें एक नया धर्म-कार्य आरम्भ करनेके लिए भेज दिये गये। वहाँ १८८६ ई०में उनकी भेंट कुमारी बिग्ससे हुई जिनसे उन्होंने विवाह कर लिया। उसके कुछ समय बाद ही वे चडली लौट गये। चडलीसे श्री डोकको सिटी रोड बैपटिस्ट गिरजेका पादरी बनाकर ब्रिस्टल भेज दिया गया और तबसे १८९४ तक वे वहाँ रहे। इस बीच कुछ दिनोंके लिए वे मित्र,