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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सभी धर्मोंने इस शरीरको ईश्वर-मिलनका, उसे पहचाननेका साधन माना है। इसे देव-मन्दिर ही कहा गया है। हमें यह किरायेपर मिला है और इसके किरायके रूपमे हमें केवल उस प्रभुकी स्तुति- इबादत - भर करनी है। किराये पट्टेकी दूसरी शर्त यह है कि इसका दुरुपयोग न किया जाये। इसे बाहर और भीतरसे स्वच्छ रखा जाये और हमें यह जिस हालतमें मिला है उसी हालतमें उस मालिकको एक निश्चित मुद्दतमें वापिस लौटा देना है। यदि हम किराये पट्टेकी सारी शर्तोंका ठीक तौरसे पालन करें तो मुद्दत पूरी होनेपर मालिक हमें इनाम बख्शता है, और अपना वारिस बना देता है।

जीवमात्रके शरीर है और उसका गठन प्रायः एक-सा है। मतलब यह कि उसे सुनने, देखने, सूंघने और भोगनेके साधन दिये गये है। परन्तु मानव-देहको तो " रत्न चिन्तामणि" कहकर उसका गुणगान किया गया है। "रत्न चिन्तामणि"का अर्थ यह है कि यह ऐसा रत्न है जिससे मनोवांछित प्राप्त किया जा सकता है। पशुदेह द्वारा जीव ज्ञानपूर्वक भक्ति नहीं कर सकता। जहाँ जानपूर्वक भक्ति न हो वहाँ मुक्ति नहीं हो सकती और जहाँ मुक्ति न हो वहाँ सच्चा सुख नहीं है और उसके बिना वास्तविक दुःखका नाश भी सम्भव नहीं है। इस शरीरका सदुपयोग हो, अर्थात् इसे ईश्वरका भवन बनाया जाये तभी यह कामका है; अन्यथा यह हाड़-मांस और रक्तका एक घृणित पिण्ड-मात्र है। उससे निकलनेवाला पानी और श्वास विषैला है। शरीरके असंख्य छोटे-मोटे छिद्रोंसे निकलनेवाली किसी भी वस्तुका हम संग्रह करना नहीं चाहते। उनका खयाल करते हुए, उन्हें देखते हुए और उसका स्पर्श करते हुए हमें के होने लगती है। बड़े परिश्रमके बाद ही हम कीड़े पड़ने से उसे बचा पाते हैं। इसी [देह] के जरिये हम हजारों ऐसी बातें कर जाते हैं जो हमें नहीं करनी चाहिए, जैसे शरारत, ढोंग, स्वेच्छाचार, कपट, चोरी आदि। इस 'हँडिया'को हमेशा नित नये पदार्थ चाहिए। और इस सबके बाद भी यह ऐसी क्षणभंगुर है कि प्रहार-सहनकी शक्ति तो इसमें वास्तविक हँडियासे भी कम है। क्षणभरमें ही तो इसका नाश हो जाता है।

शरीरकी ऐसी स्थिति ठीक ही है। जिस वस्तुका अच्छेसे-अच्छा उपयोग हो सकता है उसके दुरुपयोगकी सम्भावना भी उसमें रहती ही । यदि ऐसा न हो तो उसकी कीमत ही नहीं आंकी जायेगी। हम सूर्यके तेजकी परीक्षा करनेकी क्षमता रखते है; क्योंकि सूर्यके अभावमें अन्धकार कैसा होता है, उसे भी हम देख सकते हैं। और जिस सूर्यके बिना हमारा जीवन क्षण-भरको भी नहीं टिक सकता, उसी सूर्यमें ऐसी शक्ति है कि वह हमें जलाकर खाक कर सकता है। राजा बड़ा भला भी हो सकता है और अधम भी।

इस शरीरपर काबू पानेके लिए ईश्वर जी-जानसे प्रयत्नशील है। इसी प्रकार राक्षस या शैतान भी जी-तोड़कर जुटा है। जब वह ईश्वरके आधीन रहता है तब वह रत्नके समान है और जब वह शैतानके कब्जे में होता है तब तो नरककुण्ड ही बन जाता है। जो विषय भोगने में मग्न रहता है, जिसमें सड़नेवाले और सड़ांध पैदा करनेवाले खाद्य दिन-भर भरे जाते हैं, जिसमें से दुर्गन्ध आती रहती है, जिसके हाथ-पाँव आदि अंग चोरी करने में प्रवृत्त होते है, जिसकी जीभ अकथनीयको कहने में, और