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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


भी है। “सर्पकी बुद्धि जैसी हमारी बुद्धि होनी चाहिए" -अंग्रेजीमें तो एसा कह कर तुलना की गई है। नल राजाको कर्कोटक नामक नागने डसकर उनपर उपकार किया था। अपने जहरसे उसने नलको कुरूप बना दिया, जिससे जंगलों में भटकते हुए उनपर कोई कुदृष्टि न डाल सके। बाइबिलमें सर्पको शैतानका रूप माना है। सर्प ही ने होवाको प्रलोभन दिया था।

सर्पके सम्बन्धमें इस प्रकार अनेक मान्यताएँ और दन्तकथाएँ प्रचलित हैं। उसके प्रति भयकी बात तो समझमें आ सकती है। यदि पूरी तरह उसका जहर चढ़ जाये तो मृत्यु अवश्यम्भावी है; और मृत्युको कौन चाहता है ? इसीलिए लोग सर्पसे डरते हैं। भय ही के कारण उसे पूजते हैं, यह भी समझा जा सकता है। सांप यदि छोटा-सा प्राणी होता तो इतना भयंकर होते हुए भी सम्भवत: इतना पूजा न जाता। परन्तु चूंकि वह मोटा, विशाल, सुन्दर और विचित्र प्रकारका प्राणी है, अतः उसकी पूजा भी होती है।

उसमें बुद्धिका आरोप क्यों किया गया है, यह बात विचारणीय है। आजकलके विशेषज्ञ तो कहते हैं कि उसमें बुद्धि नामको भी नहीं है। वे तो कहते हैं कि सर्पको जहाँ देखा जाये, मार दिया जाये। भारतवर्ष में प्रतिवर्ष २०,००० व्यक्ति सर्पदंशसे मरते हैं। ये सरकारी आंकड़े हैं। मेरे खयालसे तो इससे भी अधिक लोग मरते होंगे। प्रत्येक जहरी साँपको मारनेपर सरकार इनाम देती है। पर इनाम रखनेसे कोई फायदा हुआ या नहीं, यह देखना होगा। इतना तो साधारण अनुभव है कि साँप यों नहीं काटता। वह तभी काटता है जब उससे छेड़छाड़ की जाये। क्या यह उसके. बुद्धिसम्पन्न होनेका लक्षण नहीं है ? यदि यह लक्षण बुद्धिका न हो तो उसकी निर्दोषताका माना जायेगा। अपने बचावमें ही तो वह दाँतोंका प्रयोग करता है। मनुष्य भी तो यही करता है। भारतवर्षको या किसी अन्य स्थानको सर्प-रहित करनेका प्रयत्न नितान्त असम्भव है। यह हो सकता है कि किसी खास स्थानसे साँपोंको दूर कर दिया जाये। उस विशेष स्थानमें आनेवाले साँपोंको मार डाला जाये तो दूसरे साँप आने बन्द हो जायेंगे। वे समझ जाते हैं कि उस स्थानमें जाना मौतके पंजोंमें ही पड़ना है। परन्तु ऐसा तो किसी मर्यादित स्थानके लिए ही किया जा सकता है। हिन्दुस्तान-जैसे विशाल देशके लिए यह प्रयास सम्भव नहीं हो सकता। अतः साँपोंको मारकर जड़-मूलसे नष्ट कर देना तो पैसा पानीमें फेंक देनेके समान है।

साँपोंको भी वही ईश्वर पैदा करता है और उसके सारे कार्योको समझ लेनेकी शक्ति हममें नहीं है। उसने शेर, सिंह, साँप, बिच्छू आदिको इस कल्पनासे तो नहीं बनाया होगा कि मनुष्य इन्हें मार डाले। यदि सर्प भी सामूहिक रूपसे यह विचार करें कि मनुष्य तो जहाँ देख पाता है वहीं हमें मार डालता है। तब क्या मनुष्यको ईश्वरने साँपोंको मारनेके लिए ही पैदा किया है ? तो जिस प्रकार यह कल्पना गलत है ठीक उसी प्रकार साँपोंके सम्बन्धमें हमारे विचार भी निरर्थक ही माने जाने चाहिए।

यूरोपमें सेंट फ्रांसिस नामक एक महायोगी हो चुके हैं। वे जंगलों में साँपोंके बीच घूमते-फिरते थे; तो भी वे उन्हें कोई हानि नहीं पहुँचाते थे। बल्कि वे उनके साथ मित्र-भाव रखते थे। भारतके जंगलोंमें भी हजारों फकीर जोगी बास करते हैं। वे शेरों,