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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


दाल आदि वस्तुएँ खा-खाकर उष्ण हो गया होता है, वह जब नीबू आदि खाता है तो पहले-पहले कोई संकट पैदा हो सकता है। बादमें यदि वह मसाला आदि छोड़कर आवश्यकताके अनुसार नीबू आदिका सेवन करे तो इसमें सन्देह नहीं कि उसका रक्त शुद्ध हो जायेगा। बहुत गर्मीवाली जगहसे निकलकर कोई मनुष्य ठंडी हवाका सेवन करे, तो शरीर अकड़ जाता है; सम्भव है कि मिर्च आदि खानेवाले मनुष्यपर नीबू ऐसा ही असर करता हो।

ब्राह्मणोंको पूज्य माननेके सम्बन्धमें मुझे याद आता है कि मैं तुम्हें लिख चुका हूँ।

मैं अच्छी पाठशालाके खिलाफ नहीं हूँ। किन्तु ऐसा जरूर मानता हूँ कि जिसमें बहुत ज्यादा बालक हों, ऐसी पाठशाला अच्छी नहीं हो सकती। इसके सिवा पाठशाला तो वही है जहाँ बालक चौबीसों घण्टे रहे। अन्यथा उन्हें दो प्रकारका शिक्षण मिलता है।

मैं आ जाऊँगा तब प्रेस जैसा चल रहा है वैसा ही चलता रहेगा। श्री पोलक अपना धन्धा करेंगे। कुमारी श्लेसिन तो अभीसे अन्यत्र नियुक्त हो गई हैं। श्री कैलेनबैंक शायद मेरे साथ आयेंगे। कुमारी मेरी फिलहाल फीनिक्समें ही रहेगी। मणिलाल साथ आयेगा।

हमारे सब शास्त्र विचारपूर्वक और ज्ञानपूर्वक लिखे गये हैं, ऐसा माननेका कोई कारण नहीं है। चार्वाक दर्शन भी शास्त्र माना गया है। जिसमें शुद्ध ज्ञान है, वही शास्त्र है, ऐसा अर्थ करें तो यह कहा जा सकता है कि समस्त शास्त्र ज्ञानपूर्वक ही लिखे गये है। इस विचारके अनुसार जिन शास्त्रोंमें नरमेध आदिका उल्लेख हो, उन्हें अज्ञानपूर्ण मानना चाहिए। ऐसी बातें, सम्भव है, शुद्ध शास्त्रोंमें बादमें प्रक्षिप्त कर दी गई हों। यह सारी खोज करनेकी आत्मा को कोई आवश्यकता नहीं है। यह तो इतिहासके पण्डितोंके कामकी चीज है। हमें तो लिखे या बोले गये शब्दोंसे सारकी बात ग्रहण करनी है। सब शास्त्रोंको शास्त्र मानकर उनकी अनर्थकारी बातोंमें भी अर्थ ढूंढ़नेकी और उन्हें सिद्ध करने की झंझटमें हम क्यों पड़ें?

भारतमें और अन्यत्र ज्ञान और अज्ञान दोनों साथ-साथ चलते आये हैं। इसीलिए हम देखते है, धर्मके नामपर अन्याय-मूलक रिवाज चलते हैं; जैसे कालीके सामने पशुबलि आदि। इन अनिष्टकारी रिवाजोंको दूर करनेकी खटपटमें भी फिलहाल हम नहीं पड़ सकते। हमारा पहला सूत्र यह है कि हम आत्माको जानें। इतना पाठ पढ़ने और जानने के बाद बाकी सब-कुछ हमारी समझमें अपने-आप आता चला जायेगा।

यदि विभीषण प्रभु रामचन्द्रके पास निःस्वार्थ बुद्धिसे गये तो उनका ऐसा करना बिलकुल ठीक था। अपने सगे भाईके दोष भी प्रभुसे कौन छिपाना चाहेगा? और भाईके दोष दूर करनेके लिए प्रभुकी सहायता मांगना भी ठीक ही है।

तुमने 'भागवत् ' का जो श्लोक उद्धृत किया है, हमें उसके शब्दार्थका आग्रह नहीं करना चाहिए। कृष्णकी लीला तो कृष्ण ही जानते हैं। वे यदि कामनापूर्वक भी कुछ करते हों तो भी हम स्थूल देहधारी प्राणी वैसा नहीं कर सकते। उनकी प्रभुता उन्हें [नियमोंके बन्धनसे छूट देती है; हम ऐसी छूट नहीं ले सकते। इसके सिवा यह भी