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पत्र: भवानी दयालको


भारतके धर्मात्मा व्यक्तिको बाहर जाकर अमेरिकामें कोई उपदेश करनेकी आवश्यकता नहीं है। कर्मयोगने हमारी सीमा बाँध दी है; उसका उल्लघन करना मोह और ममत्वका सूचक है।

जापान और अमेरिका विकास कर रहे हैं, यह मैने माना ही नहीं है। यदि कोई मनुष्य अकारण अपने शरीरका बलिदान कर देता है तो यह नहीं कहा जा सकता कि उसने कोई सत्कार्य किया है। उसके मूलमें ममत्व था और इसलिए उसे पापकर्म कहना होगा।

जहाँ पत्नी-पतिके धर्म भिन्न होते है वहाँ एकता नहीं आ सकती।

मुद्रणालय और समाचारपत्र भी दोषपूर्ण चीजें है। चूंकि हम यह जानते हैं इसलिए हमें इस किस्म के नये और बड़े काम हाथ में नहीं लेने चाहिए। इस विषयपर मैने 'हिन्द स्वराज्य में लिखा है। वह आज भी सही मालूम होता है।

मणिलालने. की घटनाके बारेमें तुम्हें लिखा है। इसलिए मैं यहाँ कुछ नहीं लिखता। उससे हम कई सबक सीख सकते हैं।

मोहनदासके आशीर्वाद

गांधीजीके स्वाक्षरों में मूल गुजराती प्रति (सी० डब्ल्यू. ५६४७) से।

सौजन्य : नारणदास गांधी

९९. पत्र: भवानी दयालको

[फीनिक्स]
आषाढ़ कृष्ण ५ [जुलाई २३, १९१३ ]

भाई श्री भवानी दयाल,

तुम्हारा खत मीला है। जोहानिसबर्गसे मेरा जानेका एकदम [तय] होनेके लीये में खबर देने न सका। इसलीये माफी चाहता हुं।

जो पत्रव्यवहार मुलकी प्रधान के साथ चल रहा था वह खलास नहि हुआ है। परन्तु प्रिटोरियसे मुझे तार मीलाके जबतक स्ट्राइकका हगाम चलता है तबतक सरकार दूसरा काम पर ध्यान नहि दे सकते हैं। हंगामके बाद फेर मेरा आनेका होगा उस वखत मालूम हो जायेगा की लड़त चलेगी या समाधानी होगी।

स्वामी मंगलानंद पूरी जहेलमें जानेके लीये या तो धर्म बोध करनेके लीये आवे यह सलाह मैं न दे सकता हूं।

१. मैं

२. मुलकी प्रधान - यानी गृह-मन्त्री ।

३. मौसम, अवधि - तात्पर्य जोहानिसबर्गकी हड़तालकी अवधिसे है; देखिए पृष्ठ १२७-२९ ।

४. समझौता।

५. जेलमे।

६. इस 'तो' को निकाल कर पदिए ।