पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 12.pdf/१७४

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३८
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


सन्तानको शुद्ध आचरण सिखाये और ऐसा कुछ करे कि बालक अपने लिए और माता-पिताके लिए भी शोभास्पद बने। वृक्ष और उसके फलके सम्बन्धमें हम देखते ही हैं। केलेके वृक्षसे केला ही पैदा होगा और जो अच्छा वृक्ष होगा उसका फल भी उत्तम ही पकेगा। अच्छे व्यक्तियोंके बालक अच्छे ही होंगे। किन्तु मानव प्राणियोंमें इस नियमका उलटा दिखाई पड़ता है। पवित्र जान पड़नेवाले माता-पिताकी सन्तान अपवित्र और स्वस्थ दीखनेवाले मां-बापके बच्चे रोगी। ऐसा होनेका प्रधान या एकमात्र कारण यही है कि हम माता-पिताके पदके योग्य न होते हुए भी स्वच्छन्दतापूर्वक माँ-बाप बन बैठते हैं। ऐसे में बालकके हितकी कौन सोचे? नीतिवान् माता-पिताका तो यह फर्ज है कि वे अपने बच्चेका ठीक ढंगसे पालन-पोषण करें। इसके लिए माता-पिता दोनोंको वास्तविक शिक्षाकी आवश्यकता है। जहाँ माता-पिता ऐसी शिक्षा पाये हुए नहीं हैं और यदि वे अपनी भूल महसूस करते हों तो उन्हें चाहिए कि वे अपने बालकोंको अन्य सुशिक्षित --नीतिपरायण लोगोंको सौंप दें। पाठशालामें जाकर बच्चे सदाचरण सीखेंगे, ऐसी आशा करना व्यर्थ ही है। सदाचरणकी शिक्षाका मार्ग तो केवल एक ही है और वह यह कि बच्चोंको निरन्तर ऐसे वातावरणमें रहना नसीब हो। घरपर एक प्रकारकी शिक्षा और पाठशालामें अन्य प्रकारकी - ऐसे में बच्चे कभी नहीं सुधर पायेंगे। ऊपर लिखे विचारोंके आधारपर यह नहीं कहा जा सकता कि शिक्षा प्रदान करनेका कोई खास समय होता है। बच्चा जन्म लेता है, उसी क्षणसे उसकी शिक्षा शुरू हो जाती है, और उसी समयसे उसे शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक या धार्मिक शिक्षा मिलने लगती है। शब्द-ज्ञान भी उसे, बोल फूटते ही प्राप्त होने लगता है। अक्षरज्ञान भी वह खेल-खेल ही में माता-पितासे ही प्राप्त कर सकता है। पिछले जमानेमें इसी प्रकार होता था। स्कूल में दाखिल करनेका रिवाज तो अब चल पड़ा है। बच्चोंके प्रति अपना कर्त्तव्य माता-पिता यदि ठीक तौरसे पालें तो वे कितने ऊँचे उठ सकते हैं, इसका अन्दाज करना भी सम्भव नहीं है। पर यदि बच्चोंको अपने खिलौनोंकी तरह रखकर उनपर नाक लाड़ बरसाया जाये, अनुचित प्रेमके वशीभूत हो हम उन्हें मिठाई, सुन्दर सुहावने वस्त्र आदिके द्वारा बचपनसे ही बिगाड़ चलें, मिथ्या स्नेहके कारण उन्हें जैसा चाहें करने दें, स्वयं धनके लालचमें पड़े रहें और बच्चोंमें भी पैसेकी लालसा जगायें; विषयोंमें गर्क होकर बच्चोंके सम्मुख भी वैसा ही उदाहरण पेश करें, आलसी रहकर उन्हें भी आलसी बनायें; गन्दे रहकर उन्हें गन्दगी सिखायें, झूठ बोलकर झूठ सिखायें तो फिर हमारी सन्तान यदि निर्बल, अनीतियुक्त, झूठी, विषयी, स्वार्थी और लालची बन जाये तो इसमें आश्चर्यकी क्या बात है? इन बातों-पर विचारवान् माता-पिताओंको बहुत-कुछ सोच-विचार करना चाहिए। भारतवर्षका आधा भविष्य माता-पिताके हाथमें है।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, १९-७-१९१३