हैं और सस्ते होनेके कारण उन्हें लोग ज्यादा खा लेते हैं। दूसरी खुराक तो चलती ही रहती है। अत: इन फलोंका एकाएक बड़ा हानिकारक परिणाम होता है। हम लोगोंको पेट दुखने आदिकी शिकायत तो बनी ही रहती है। ऐसे में जब किसीका शरीर और
बरदाश्त नहीं कर पाता तो उसे हैजा हो जाता है। अन्य लोगोंके शरीरकी हालत भी ऐसी ही होती है। अत: एकको होनेपर दूसरोंको भी है जा पकड़ लेता है। रोगीके मलकी कोई विशेष व्यवस्था नहीं की जाती; इसलिए उसपरके कीटाणु ह्वाको दूषित
करते रहते हैं। इसपर गर्मियोंमें जल भी स्वच्छ नहीं होता। चारों ओर सूखापन होता है। अतः जल भी मैला और कीटाणु-दूषित हो जाता है। और उसका सेवन भी बिना छाने या उबाले किया जाता है। ऐसी स्थितिमें रोग क्यों न हो। प्रकृतिने हमारा शरीर बड़ा मजबूत बनाया है, इसीसे हमारा निर्वाह होता रहता है, नहीं तो
हमारी चर्या को देखते हुए तो हमारा फैसला बहुत ही शीघ्र हो जाना चाहिए।
अब हैजेकी हालतमें बरती जानेवाली सावधानीका विचार करें। यह अत्यन्त जरूरी है कि खुराक हलकी और बहुत थोड़ी खाई जाये। अच्छे फल अवश्य खाये जायें परन्तु उनको अच्छी तरहसे देख लिया जाये। लालचमें या स्वादके वशीभूत होकर दाग लगे आम या अन्य फल बिलकुल न खाये जायें। स्वच्छ हवाका सेवन अवश्य करते रहें। पानी तो सदा उबाला हुआ और स्वच्छ मोटी खादीसे छना हुआ ही पीना चाहिए। रोगियोंका मल जमीनमें गाड़ देना चाहिए और उसपर सूखी मिट्टी फैला देनी चाहिए। यह नियम बना लेना चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति शौचके बाद वहाँ राख डाल दिया करे। इससे भयकी गुंजाइश बहुत कम रह जायेगी। सच देखा जाये तो इस नियमका हमेशा पालन किया जाना चाहिए। बिल्ली भी जमीनको खरोंचकर उसमें पाखाना करती है और फिर उसपर अपने पंजोंसे मिट्टी डाल देती है। केवल हम ही ऐसा नहीं करते और ऐसा करने में स्पर्शास्पर्श या घिनका भाव रखकर रोगोंके शिकार बन जाते हैं। राख न मिले तो सूखी मिट्टीका उपयोग करना चाहिए। यदि मिट्टीके ढेले हों तो उन्हें फोड़कर चूरा कर लेना चाहिए।
संक्रामक अतिसार छूतके रोगोंमें सबसे कम खतरनाक है। इसमें यदि पेड़पर मिट्टी बराबर रखी जाये और रोगीका खाना बिलकुल बन्द कर दिया जाये तो रोग नष्ट हो जायेगा। रोगीके मैलेको ऊपर बतलाये मुताबिक जमीनमें दबा देना अत्यन्त जरूरी है। पानीके सम्बन्धमें भी हैजेकी तरह ही सावधानी रखने की जरूरत है।
अन्तमें, इन छूतके रोगोंमें बीमारको तथा उसके मित्रों और सगे-सम्बन्धियोंको जराभी हिम्मत नहीं छोड़नी चाहिए। भयसे रोगीके जल्दी मर जाने और उसके सम्बन्धियों तथा दूसरोंको भी रोग हो जाने की सम्भावना रहेगी।
इंडियन ओपिनियन, ५-७-१९१३