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पत्र: ई० एम० जोर्जेसको


है। वह मांसका ही रूप है और मनुष्यको उसे पीनेका अधिकार नहीं। बच्चा मांका दूध पीता है, इसलिए मनुष्यको गायका दूध पीना चाहिए, यह बात तो अज्ञानकी सीमा है।

मोहनदासके आशीर्वाद

[गुजरातीसे]
महात्मा गांधीजीना पत्रो

९०. पत्र : गृह-सचिवको

[जोहानिसबर्ग]
जुलाई [४], १९१३

प्रिय श्री जॉर्जेस,

आपके इसी ३ तारीखके नोटके लिए धन्यवाद। श्री पोलकके बारेमें आपसे हुई बातचीतको ध्यानमें रखते हुए कृपया कल शनिवारको आप जितनी जल्दी हो सके, फोन कर लें। मैं लगभग ढाई बजे तक दफ्तरमें रहूँगा। मेरा टेलीफोन नम्बर १६३५ है।

मैंने आपके पास नेटालके उन गिरमिटिया भारतीयोंके मुकदमेसे सम्बन्धित कागजात भेजने की बात कही थी जो ३ पौंडी करं दे रहे हैं। मुकदमा है- सुब्रायन बनाम मुख्य प्रवासी-अधिकारी; यह 'नेटाल रिपोर्ट्स के पृष्ठ ६३८ पर दिया गया है। मुकदमेका सार, जो मुझे तारसे भेजा गया है, इस प्रकार है :

सुब्रायनने गिरमिटियाके रूपमें काम किया था। उसका गिरमिट १९०६में खत्म हुआ था। उसके बाद उसने मई १९११ तक [३ पौडी] कर दिया। फिर वह अपना कारबार अपनी पत्नीको सौंपकर कुछ दिनोंके लिए भारत चला गया। सुब्रायन नवम्बर, १९१२ में लौट आया, किन्तु उसपर १९०३ के नेटाल अधिनियमके खण्ड ५, उपखण्ड (क) के अन्तर्गत प्रतिबन्ध लगा दिया गया। अदालतने खण्ड ३२, उपखण्ड (ख) के अन्तर्गत निर्णय दिया कि कर देनेके बाद सुब्रायनका स्वतन्त्र भारतीयके रूपमें नेटालमें निवास खण्ड ३२ में "गिरमिट "के तुरन्त बाद दिये गये -- “या ऐसे ही" शब्दोंके अर्थके अन्तर्गत नहीं आता और वह खण्ड ४के अन्तर्गत अधिनियमके अमलसे छूट पानेका अधिकारी है।

मेरा खयाल है, आप इस बातसे सहमत होंगे कि इस मामलेसे मेरी बातका पूरा-पूरा समर्थन होता है।

आपका सच्चा,

श्री ई० एम० जॉर्जेस

टाइप की हुई दफ्तरी अग्रेजी प्रति (एस० एन० ५८२३) की फोटो-नकलसे।