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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कृष्ण, राम, बुद्ध, ईसा आदिमें बड़े कौन है, यह कहना कठिन है। हरएकका कार्य भिन्न था और हरएकने अपना कार्य एक भिन्न कालमें और भिन्न परिस्थितियों में किया। केवल चरित्रका विचार करें तो शायद बुद्ध इन सबसे बड़े थे। लेकिन कैसे कहें ? उनका वर्णन भक्तोंने अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार किया है। कृष्णको वैष्णवोंने पूरी कलाओंसे युक्त माना है, और मानना ही चाहिए। उसके बिना अनन्य भक्ति नहीं उपजती। ईसाके विषय में भी ईसाई लोग ऐसा ही मानते हैं। हिन्दुस्तानमें [अवतारोंमें ] कृष्ण अन्तिम थे, इसलिए उनकी विशेष महिमा मानी गई।

ईश्वर नहीं है, ऐसा कहनेवाले लोगोंके मार्ग-भ्रष्ट हो जानेका भय है। क्योंकि तब उन्हें यह भी कहना पड़ेगा कि आत्मा नहीं है। अवतारकी आवश्यकता है और हमेशा रहेगी। ऐसा माना जाता है कि जब लोगोंमें बहुत निराशा फैल जाती है और अनीतिका प्रसार होता है, तब अवतार होता है। दुष्ट लोगोंके समाजमें सर्व-सामान्य नीतिका पालन करनेवाले चन्द लोग अपने लिए [भगवानसे ] सहायताकी याचना करते हैं। ऐसे समय में नीतिका पालन करनेवाला ऐसा कोई बलवान व्यक्ति, जो दुष्टोंसे दबता नहीं, बल्कि दुष्ट ही जिससे दबते-डरते हैं, अपने जीवन-कालमें या मृत्युके बाद अवतार-रूप मान लिया जाता है। ऐसा व्यक्ति अपनेको जन्मना अवतार माने, ज्यादातर तो यह बात सम्भव नहीं मालूम देती।

धर्मोकी तुलना करना अनावश्यक है। हमें अपने धर्मको प्रौढ़ मानकर दूसरे धर्मोको समझने की कोशिश करनी चाहिए। साधारणतः धर्मोकी तुलना करने में दया-धर्मको माप-दण्ड माना जा सकता है। जिस धर्ममें दयाको ज्यादा स्थान दिया गया है, वहाँ धर्म अधिक है। "दया धर्मको मूल है" -धर्मकी बात सबको समझानेके लिए यह पहला सूत्र है। "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या," यह दूसरा सूत्र है। जो सबको भा जाये, ऐसा एक भी सूत्र मिलना कठिन है। किन्तु ऐसा लगता है कि आत्माकी शोधमें लगे व्यक्तिको योग्य कालमें ऐसा कोई योग्य वचन सहज ही मिल जाता है।

जात-पाँतके भेदकी जरूरत है भी और नहीं भी है। लेकिन जबरदस्ती उसका पालन करवाना जरूरी नहीं। परिया लोगोंको उत्तेजन देकर गा. ने बड़ा प्रशंसनीय कार्य किया।

सच पूछिये, तो जितने मनुष्य है उतने ही धर्म हैं। जबतक मनुष्योंके मनमें भेद हैं, तबतक धर्म भिन्न-भिन्न रहेंगे ही। जो व्यक्ति अपनी और दूसरेकी आत्मामें ऐक्य देखता है, वह विभिन्न धर्मों में भी ऐक्य देखेगा।

आत्मा जब शरीरके बन्धनसे मुक्त हो जाये, तब यह कहा जा सकता है कि उसे मोक्ष प्राप्त हो गया। मोक्षकी स्थिति कैसी होती है, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह इन्द्रियगम्य नहीं है। वह केवल अनुभव की जा सकती है। प्रेत आदि योनियोंका मतलब है दुष्ट योनियाँ, और जो दुष्ट कार्य करते हैं, वे उन योनियों में जाते है।

दुग्धोपचारकी पुस्तक सरसरी निगाहसे देख गया हूँ। मुझे जॅची नहीं। लेकिन मेरे मनकी दशा ही ऐसी है। कोई यह सिद्ध कर दे कि मांसमें शरीरको लाभ पहुँचानेवाले गुण हैं, तो भी मांस त्याज्य ही है। दूधके विषयमें भी मेरा यही विचार