पीड़ित रहता है। यह बात तो सुप्रसिद्ध ही है। अतः दवाओंके सेवनसे रोग नहीं मिटता। इतना ही नहीं, बल्कि दवाइयाँ दूसरे रोगोंका कारण बन जाती हैं। दस्तको बन्द करनेके जुलाब लेनेवालेको बवासीर आदि रोग हो जानेके अनेक उदाहरण देखने में
आते हैं। रोग हो जानेपर उसके कारणकी खोज की जाये, उसे दूर किया जाये और रोगसे छुटकारा पाया जाये तथा भविष्यमें प्राकृतिक नियमोंका पालन किया जाये। इसके-जैसी पोषण प्रदान करनेवाली कोई भस्म नहीं है-- यह निर्विवाद है। लोहा आदि
धातुओंको फूंककर उसकी भस्म बनायी जाती है। इनको अक्सीर इलाज मान लेना भी भ्रम ही है। इनका कुछ असर होता है, इसका तो स्पष्ट अनुभव होता है; परन्तु ये जिस हद तक शरीरको ठीक करते जान पड़ते हैं उसी हद तक मनोविकार पैदा करते हैं अत: मूल रूपमें मनुष्यके लिए हानिकारक ही होते हैं। शीतलाकी
बीमारीके लिए ऐसी दवाइयाँ अधिक उपयुक्त मानी जाती है। शीतलाके रोगियोंको प्रायः शीतला फिरसे नहीं निकलती। इतना ही नहीं, बल्कि उसके बाद रोगीका शरीर बड़ा स्वस्थ हो जाता है। कारण, शरीरका सारा विष निकल जाता है।
जब शीतला नरम पड़े और दाने सूखने लगे तब बीमारकी चमड़ीपर जैतूनका तेल लगाया जाये और उसे रोज स्नान कराया जाये। ऐसा करनेसे शीतलाके दाग प्रायः मिट जायेंगे और नई चमड़ी आने लगेगी।
इंडियन ओपिनियन, २८-६-१९१३
८७. पत्र: गृह-मन्त्रीके निजी सचिवको[१]
जोहानिसबर्ग
जून २८, १९१३
निजी सचिव,
प्रिटोरिया
मैने प्रवासी-नियमन अधिनियम (इमीग्रेट्स रेग्यूलेशन ऐक्ट) के अध्ययनका प्रयत्न किया है और मैं कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करता हूँ कि यह मूल विधेयकसे अच्छा है।[२] किन्तु सादर निवेदन है कि यह कमसे-कम चार बातोंमें १९११ के अस्थायी समझौतेको कार्यान्वित नहीं करता। मेरी विनीत सम्मतिमें, यदि इन चार मुद्दोंके बारेमें शिकायत