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नौ PAY 1985 और वलिअम्माकी मृत्यु; वह तनावपूर्ण स्थिति, जिसमें सिर्फ यूरोपीयोंकी दूसरी हड़- तालके कारण ही हलकापन आ सका, क्योंकि श्री गांधीने एक बार फिर तय कर लिया कि जबतक सरकार इस नई मुसीबत में फँसी हुई है तबतक उसे परेशान न किया जाये; और सरकारके इस स्थितिपर काबू पा जानेपर, सौहार्द्र, विश्वास और सहयोगकी वह भावना, जो महान् भारतीय नेताकी उदारनीतिसे और अपने महान साम्राज्यीय उद्देश्यकी सफलताके लिए प्रयत्न करते हुए श्री ऐन्ड्र्यूजके उनपर स्नेहपूर्ण प्रभावसे निर्मित थी । " गांधीजीने विदाईके अवसरपर भारतीय समाजके नाम अपने पत्रमें २६ जूनको पास हुए भारतीय राहत अधिनियम में समाविष्ट समझौतेको दक्षिण आफ्रिकामें भार- तीय स्वातंत्र्यका " अधिकारपत्र" (मैग्ना कार्टा) कहा था, क्योंकि वह भारतीयोंके प्रति सरकारी नीतिके परिवर्तनका द्योतक था और उसमें भारतीयोंके इस अधिकारको मान्यता दी गई थी कि उनसे सम्बन्धित मामलों में उनकी राय ली जायेगी और उनकी उचित आकांक्षाओं का सम्मान किया जायेगा। इस प्रकार उनके लिए अपनी मातृभूमिके बाद सबसे अधिक पवित्र और प्रिय बन जानेवाले उप-महाद्वीप ( पृष्ठ ४९६ ) -- दक्षिण आफ्रिकासे १८ जुलाईको विदाई लेते समय, गांधीजीके मन में यही भाव था कि उन्होंने जिस कामका बीड़ा उठाया था वह काम पूरा हो चुका है। (4 गांधीजी ४ अगस्त से १८ सितम्बर तक लन्दन में रुके। उसी बीच प्रथम विश्व- युद्ध शुरू हो गया। गांधीजी कई बार बीमार पड़नेके बावजूद एक 'भारतीय एम्बुलैंस कोर" के संगठन में सक्रिय रूपसे लगे रहे। उस संकटकी घड़ी में साम्राज्यके प्रति उनकी राजभक्तिका यह एक प्रतीक था । इस कार्य में भी एक बार उन्हें सत्याग्रह करनेका अवसर आ पड़ा था। प्रश्न था भारतीयोंके इस अधिकारका कि 'कोर 'की टुकड़ियोंको तैनात करनेके बारेमें भारतीयोंसे परामर्श किया जाना चाहिए और वह भारतीयोंके आत्म-सम्मान से सम्बन्ध रखता था। गांधीने इसको लेकर सत्याग्रह किया और उनकी जीत हुई । गांधीजी १९ सितम्बरको भारतके लिए रवाना हुए — उस देशके लिए “जहाँ समूचे संसारके सुख एवं उत्थानके लिए आध्यात्मिक ज्ञानका विशालतम भण्डार मौजूद है।" उन्होंने भारत और ग्रेट ब्रिटेनके सम्बन्धोंको पारस्परिक आदान-प्रदान द्वारा ( पृ० ५५६) और दृढ़ बनानेके लिए काम करनेपर जोर दिया -- इस बातसे उनके तत्कालीन राजनीतिक दृष्टिकोणका पता चलता है। यात्रा - कालकी अपनी भावनाको उन्होंने वेस्टके नाम जहाजसे लिखे गये पत्रमें व्यक्त किया है । " इतनी बार मुझे भारत जाते-जाते रुक जाना पड़ा है कि एकाएक मनको विश्वास नहीं होता कि मैं भारत जानेवाले जहाजमें बैठा हूँ। और मेरी समझ में नहीं आता कि वहाँ पहुँचकर मुझे स्वयं क्या करना होगा ? फिर भी 'हे सदय प्रकाश, घिरे हुए अन्धकारमें मुझे रास्ता दिखा; मुझे आगे ले चल ' यही विचार मुझे ढाढस देता है..।" (पृ० ५५७-५८) -- इस खण्ड में मौजूद निजी पत्रोंसे पता चलता है कि संघर्षकी उथल-पुथलके बीच भी गांधीजी ईश्वर और मोक्षके प्रश्नोंपर विचार करते रहते थे । इन पत्रों में देखा