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तार : गो० कृ० गोखलेको


इसमें मेरे बताये कारणोंसे धार्मिक आपत्ति मानते हों उन्हें तो अकेले भी इसके विरुद्ध खड़े हो जाना चाहिए और जो संकट आये उन्हें उठा लेना चाहिए। वह मनुष्य, जो केवल यह मानता हो कि टीका न लगवानेसे स्वास्थ्यको हानि न होगी, एकाएक ऐसे कानूनके खिलाफ खड़ा नहीं होगा। ऐसे मनुष्यको तो [इस सम्बन्धमें ] बहुत जानकारी होनी चाहिए। उसमें यह शक्ति होनी चाहिए कि वह अपनी मान्यताएँ दूसरोंको समझा सके। उसे जनताका मत परिवर्तित करनेके लिए तैयार होना चाहिए। पर जो मनुष्य ऐसा न कर सके वह तो अपना स्वास्थ्य बनाये रखनेकी दृष्टिसे भी जनमतके विरुद्ध नहीं जा सकता। बहुतेरे कार्य ऐसे हैं जो हमें पसन्द नहीं होते, फिर भी हम जिस समाजमें रहते है उसकी खातिर हमें करने पड़ते हैं। समाजकी सुख-सुविधाके सामने हमें अपनी व्यक्तिगत सुविधाओंको दरकिनार करना पड़ता है। बहुमतके सम्मुख एक व्यक्ति खड़ा हो सके, ऐसा अवसर तो धर्म या नीतिकी बात होनेपर ही आ सकता है। यही साधारण नियम है। जो मनुष्य अपना कोई मत ही नहीं रखता किन्तु इस प्रकारके लेखोंसे प्रभावित होकर और अपनी आलसी वृत्तिको उत्तेजित करनेके लिए टीका न लगवाना चाहे उसे तो कानूनका ही पालन करना चाहिए।

और फिर टीका न लगवानेवालेको स्वच्छता आदिके नियमोंको समझते हुए उनका भी बराबर पालन करना चाहिए। जो मनुष्य शीतलाका लस लगवाना तो न चाहे, किन्तु विषय-भोगके जरिये विष ग्रहण करता हो या स्वास्थ्यके अन्य नियमोंका उल्लंघन करके दुःख भोगता हो उसे उस देश या समाजका विरोध करनेका अधिकार नहीं है जिसमें चेचकका टीका स्वास्थ्य-सम्पादनका नियम माना जाता है।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, २१-६-१९१३

८५. तार : गो० कृ० गोखलेको

डर्बन
जून २१, १९१३

गोखले
लन्दन

मन्त्रीको अन्तिम पत्र देनेके लिए ट्रान्सवाल जा रहा हूं। यदि जवाब सन्तोषप्रद हुआ और नया समझौता किया गया तो सत्याग्रह नहीं होगा। कानूनमें चार घातक आपत्तियाँ मौजूद दिखती है।[१] मुझे खास आशा नहीं है। समझौता न होनेपर, जुलाईके प्रारम्भमें सत्याग्रह शुरू। तब पोलक रवाना हो सकते हैं। यदि सम्भव हो तो उनके आने-जाने व एक साल रहनेके


१२-८
  1. १ और २. देखिए “पत्र : गृह-मन्त्रीके निजी सचिवको", पृष्ठ १५-१८ ।