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आरोग्यके सम्बन्धमें सामान्य ज्ञान [-२४]


प्रकोप हो तब उस स्थानके सारे मनुष्योंको चाहे उन्हें पहले टीका लगाया जा चुका हो या नहीं--टीका लगवा ही लेना चाहिए। इस प्रकार अनेक मनुष्य पाँच-छ: या उससे भी अधिक बार टीका लगवाते हुए देखे जाते हैं।

शीतलाका टीका एक बड़ा जंगली रिवाज' प्रतीत होता है। इस जमाने में प्रचलित वहमों में से यह भी एक है। और इस प्रकारके वहम तो जंगली कहे जानेवाले लोगोंमें भी देखने में नहीं आते। इस वहमके हिमायतियोंको इतनेसे सन्तोष नहीं हो पाता कि जिसकी इच्छा हो वह यह टीका लगवाये; वे इसका लगवाना सभीके लिए अनिवार्य मानते हैं। जो लोग नहीं लगवाते उनपर कानूनी कार्रवाई की जाती है, और उन्हें सख्त सजा दी जाती है। टीकेका यह आविष्कार १७९८ में हुआ। अत: इसे कुछ प्राचीन वहम नहीं कहा जा सकता। इस बीच तो लाखों मनुष्य उसके शिकार बन चुके हैं। जिन्हें यह टीका लगाया जाता है, वे शीतलासे बच गये माने जाते हैं, यद्यपि ऐसा मान लेनेके लिए कोई सबल आधार नहीं है। यदि टीका न लगवाया होता तो शीतला अत्यन्त उग्र रूपमें निकलती -ऐसा कोई नहीं कह सकता। उल्टे टीका लगे हुए लोगोंको शीतला निकलनेके उदाहरण हैं। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि यदि अमुक मनुष्यने टीका लगवा लिया होता तो वह शीलतासे मुक्त रहता।

टीका लगवाना तो एक बड़ा गन्दा उपाय है। गायकी शीतलाकी पीब हमें लगाई जाती है, इतना ही नहीं, मनुष्योंकी शीतलाका टीका भी लगाया जाता है । साधारणतः पीबको देखकर कइयोंको के हो जाती है। यदि यह हाथमें लग जाता है तो लोग साबुनसे हाथ धोते हैं। यदि किसीसे इसे खानेके लिए कहा जाये तो ऐसी बातसे ही उसे उबकाई उठने लगेगी। यदि कोई मनुष्य ऐसा मजाक भी करे तो हम उससे लड़नेपर उतारू हो जायेंगे। ऐसा होते हुए भी शायद ही किसीने विचार किया होगा कि टीका लगवाकर हम पीब यानी सड़ा हुआ रक्त ही ग्रहण करते हैं। सभी जानते हैं कि बीमारीकी हालतमें कई बीमारोंको दवा या पेय-खुराक त्वचाके जरिये दी जाती है और उसका प्रभाव मुंह द्वारा खाई हुई खुराकसे भी अत्यन्त तेजीसे होता है। मुंहसे सेवन की गई वस्तु एकदम रक्तसे नहीं मिल पाती, परन्तु त्वचाके द्वारा लिया गया पदार्थ एकदम रक्तसे जा मिलता है। और किंचिन्त्-मात्र लिये गये पदार्थका असर भी तत्काल होता है। इस प्रकार देखा जाये तो शरीरपर शीघ्र प्रभावशील होनेकी दृष्टिसे तो त्वचाके द्वारा ली गई दवा या खुराक खाई हुई ही मानी जायेगी। और हम शीतलासे बचनेके लिए पीब भी खा जाते हैं। कहावत है कि डरपोक मौतसे पूर्व ही मर चुके होते हैं। ठीक इसी प्रकार शीतलाके रोगसे हम मर जायेंगे या कुरूप बन जायेंगे, इस भयसे हम टीका लगवाकर पहले ही मर चुकते हैं।

इस प्रकार पीब ग्रहण करने में मैं तो मानता हूँ कि हम सभी धर्म-भ्रष्ट होते हैं। मांसाहारी लोगोंको भी रक्त पीनेकी मनाही है। और फिर देखा जाता है कि जीवि प्राणीका रक्त या मांस तो खाया ही नहीं जाता। यह टीका तो फिर जीवित और निर्दोष प्राणीका रक्त होता है और उसे सड़ाया जाता है और तब हमें त्वचाके जरिये खिलाया जाता है। अत: एक आस्तिक मनुष्य तो इस प्रकार रक्त सेवन करनेकी