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विधेयक


अधिकारक्षेत्रके सवालकी स्थिति बड़ी ही असन्तोषजनक रह गई है। यह नेटालके भारतीय अधिवासियोंको पुनः-प्रवेशकी उन सब सहूलियतोंसे वंचित कर देता है जो अभीतक उनको प्राप्त रही हैं। अभीतक नेटाल में तीन सालके पूर्व-निवासके बलपर वे प्रवेश पा जाते थे, अब वे शायद वैसा न कर सकेंगे। इसी तरह जो गिरमिटिया भारतीय ३ पौंडी कर दे चुके हों वे भी शायद अब वहाँ अधिवासके अधिकारका दावा नहीं कर सकेंगे। दक्षिण आफ्रिकामें जन्मे भारतीय अब केप अधिनियमके अन्तर्गत सम्भवतः केपमें प्रवेश न कर पायें। फ्री स्टेटवाली कठिनाई भी पूर्ववत् बनी हुई है। इससे मालूम होता है कि यह एक ऐसा विधेयक है जिसको स्वीकार करना जुर्म है और जिसका प्रतिरोध करना कर्तव्य है।

फिर भी यह उल्लेखनीय है कि विधेयक यद्यपि स्पष्टतः भारतीय-विरोधी था, तो भी उसे दोनों सदनोंमें तूफानोंके बीचसे गुजरना पड़ा और रियायतें, चाहे वे जैसी भी हों, एक अनिच्छुक और कठोरहृदय मन्त्रीसे मुश्किलसे प्राप्त की जा सकीं। सिनेटमें दो अवसरोंपर कुछ धाराओंके सम्बन्धमें मत लेनेपर पक्ष और विपक्षमें बराबर मत आये। यह भविष्यके लिए शुभ लक्षण है और सत्याग्रहके अच्छे प्रभावका सूचक है। इसने सदस्योंकी एक बहुत बड़ी संख्याके मनमें भारतीय मामलोंकी जानकारी प्राप्त करनेकी भावना तीव्र कर दी है।

किन्तु जहाँ संघीय-संसदके कुछ सदस्य उत्साहपूर्वक हमारे पक्षमें बोले वहाँ जान पड़ता है, सम्राट्की सरकारने हमारी पूर्ण उपेक्षा की, और संघ-सरकारके विचारोंको पूरी तरह स्वीकार कर लिया। यद्यपि यह अविश्वसनीय-सा लगेगा, पर वस्तुत: सम्राटकी सरकारने विधेयक जिस रूपमें प्रकाशित हुआ था, उसी रूपमें, मंजूर कर लिया था और इस प्रकार वह अपने ही खरीतोंसे मुकर गई। यदि श्री हरकोर्टके वक्तव्यकी रिपोर्ट ठीक है तो जान पड़ता है, उनका विश्वास यह है कि संघ-सरकार हम लोगोंके साथ पूरा न्याय करना चाहती है। विधेयकके मूल मसविदेपर, या संसदमें जो-कुछ हुआ, उसपर से ऐसी राय नहीं बनाई जा सकती है। मूल मसविदा इससे ज्यादा सख्त नहीं हो सकता था; दक्षिण आफ्रिकाके समाचारपत्रोंकी भी यही राय थी। और विधेयक पेश करनेवाले मन्त्रीका रुख तो अत्यधिक प्रतिकूल था ही।

पर यदि सम्राट्की सरकारने हमे धोखा दिया है और अपनी थातीकी उपेक्षा की है तो इससे हमें दुःखी नहीं होना चाहिए। उसे तो साम्राज्यकी यूरोपीय प्रजाके एक अत्यल्प किन्तु ऊधमी अंशका प्रतिनिधित्व करनेवाली संघ-सरकारको ही खुश करनेकी पड़ी हुई है, और ब्रिटिश ताजमें सबसे भासमान रत्न माना जानेवाला भारत तो ऐसे सहनशील लोगोंका देश है, जिन्हें, मानो, खुश करनेकी जरूरत ही नहीं. लाड़-प्यार तो दूर रहा। वास्तवमें अपनी सर्वोच्च अदालत हम खुद ही है। यदि हम स्वयं अपने प्रति सच्चे है तो कोई सन्देह नहीं कि दूसरे भी इसे जान लेने पर हमारे प्रति सच्चे हो जायेगे -- लेकिन, उससे पहले कदापि नहीं।

[ अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १४-६-१९१३