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वक्तव्य: प्रवासी विधेयकपर


सजा सुना दी।[१] ये लोग जब यह सुनेंगे कि उनकी स्त्रियाँ आखिर इस करसे मुक्त कर दी जायेगी, किन्तु उन्हें स्वयं यह कर चुकाते ही रहना पड़ेगा, तब वे क्या सोचेंगे?

[अंग्रेजीसे]
नेटाल मर्युरी, ११-६-१९१३

७९. वक्तव्य : प्रवासी विधेयकपर

डर्बन
जून १३, १९१३

यदि श्री हरकोर्टके वक्तव्यका प्रकाशित विवरण[२] सही है तो कहना पड़ेगा कि उनका जवाब चकित कर देनेवाला है। यदि उन्होंने विधेयकको उसके मूल रूपमें देखा है तो यह न मानना कि साम्राज्य-सरकारने भारतीयोंको असहाय छोड़ दिया है और संघ-सरकारको प्रसन्न करनेके लिए वह अपने खरीतोंसे खुद ही मुकर गई है, एक असम्भव' बात होगी। तथापि मैं आशा करता हूँ कि साम्राज्य सरकारने विधेयक देखा नहीं है और किये गये संशोधनोंके क्या-क्या असर होंगे उसे यह बताया नहीं गया है। साथ ही यह बात बिलकुल साफ है कि दक्षिण आफ्रिका संघकी सरकारने भारतीयोंके प्रति विश्वासघात किया है, १९११ के समझौतेको तोड़ा है और श्री गोखलेको दिये गये अपने आश्वासनको झुठला दिया है -- इतना ही नहीं, उसने साम्राज्य सरकारको ईमानदारीके साथ यह बता देनेके बजाय कि उसका समझौतेकी शों या एकाधिक खरीतोंमें व्यक्त की गई साम्राज्य सरकारकी इच्छाओंको पूरा करनेका इरादा नहीं है, उसे धोखा दिया है।

विधेयकके मूल मसविदेमें डाउनिंग स्ट्रीटमें बैठे हुए अधिकारियोंकी चिन्ता दूर करनेकी इच्छाका लेश भी दिखाई नहीं पड़ता।

इस विधेयक द्वारा जातीय भेदभाव हटा दिया गया है, यहाँतक कि प्रवासके सम्बन्धमें भी, ऐसा कहना जान-बूझकर तथ्योंको गलत रूपमें पेश करना है। वास्तवमें श्री फिशरका मुझे दिया गया तार पूरी तरह मेरे ही कथनका समर्थन करता है। १९११ से ही फ्री स्टेटकी समस्या जाति-भेदकी समस्या रही है। श्री फिशरने उसे दूर नहीं किया है और वे साफ-साफ अपने तारमें कहते है कि वे उसे प्रशासनिक कार्रवाई द्वारा हल करेंगे। यदि इस प्रकारका प्रस्ताव १९११ में स्वीकार किया जा सकता तो उस सालका विधेयक कानून बन गया होता। परन्तु इसे न तब स्वीकार किया गया था और न अब किया जा सकता है।

संघ-सरकारमें यदि जरा भी सम्मानकी भावना है तो वह कानूनको नजरमें जो जातीय भेदभाव' वर्तमान है उसे हटाने और इस उद्देश्यकी पूर्तिके लिए वह जो भी कानून

  1. १. देखिए "मुनियनका मामला", पृष्ठ ९२-९३ ।
  2. २. यह वक्तव्य श्री हरकोर्टने ११ जूनको कामन्स सभामें दिया था।