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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


खाये तो अधिक निर्बल हो जाता है, यह तो निरा भ्रम है। खुराक तो उतनी ही उपयोगी है जितनी पचाई जा सके और उसका खून बन सके। बाकी तो पेटमें सीसेकी तरह पड़ी रहती है, यह हम पिछले प्रकरणोंमें देख ही चुके है। बुखारवाले रोगीकी जठराग्नि अत्यन्त मन्द पड़ जाती है। उसकी जीभ काली या कुछ सफेद हो जाती है। ओंठ सूखते रहते हैं। भला ऐसी स्थितिमें रोगी क्या पचा सकता है ? उसे यदि खानेको दिया जाये तो अवश्य ही उसका बुखार बढ़ेगा और खाना एकदम बन्द कर दिया जाये तो उसके जठरको अपना कार्य करनेका मौका मिलेगा। अत: रोगीको एक या अधिक दिनोंका उपवास करवाना चाहिए। इसके बाद या इस बीच भी उसे क्यूनीके बाथ देने चाहिए। कमसे-कम दो बाथ तो उसे हर रोज लेने ही चाहिए। यदि बाथ लेने की शक्ति न हो तो उस स्थितिमें पेपर मिट्टीकी पट्टी रखनी चाहिए। सिर दर्द करता हो या बहुत गरम हो तो सिरपर भी मिट्टीकी पट्टी रखनी चाहिए। रोगीको कपड़े उढ़ाकर किन्तु भरसक खुली हवामें रखा जाये और जब उपवास समाप्त करनेका समय आये तो उसे गर्म या ठण्डा, सन्तरेका पानी देना चाहिए। सन्तरेको निचोड़कर उसका रस निकाला जाये, और उसे छानकर उसमें आवश्यकतानुसार उबलता हुआ या ठण्डा जल मिला लिया जाये। जहाँतक बन सके शक्कर न मिलाई जाये। सन्तरेके इस पेयका परिणाम बड़ा अच्छा होगा। यदि रोगीके दाँत खट्टे न पड़ जाते हों और वह ले सके तो उसे इसी प्रकार तैयार किया हुआ नीबूका जल देना चाहिए। फिर दूसरी बार वह एक या आधा, अच्छी तरह कुचला, केला ले सकता है। केलेको इस प्रकार कुचलकर उसमें एक चम्मच जैतूनका तेल और आधा या एक चम्मच नींबूका रस मिला दिया जाये। इन तीनोंको अच्छी तरह मिलाकर रोगीको दिया जाये। प्यास लगनेपर उसे उबालकर ठण्डा किया हुआ पानी या नीबूका जल पीने को दिया जाये। उबाले बिना तो पानी दिया ही न जाये। यदि ठण्डा पानी दिया जाये तो वह भी उबालकर ठण्डा किया हुआ होना चाहिए। स्वच्छ जल प्राप्त करनेका उपाय अगले प्रकरणोंमें बताया गया है, उसे देख लिया जाये। रोगीको कपड़े बहुत कम पहनाये जायें और उन्हें सदैव बदला जाये। यदि रोगी ठीक प्रकारसे ओढ़े हुए हो तो अधिक कपड़े पहननेकी आवश्यकता नहीं रहती। इस प्रकारके उपचारसे टाइफाइड-जैसे सख्त बुखारवाले रोगी भी पूर्ण रूपसे स्वस्थ हो चुके हैं। इतना ही नहीं वे आज भी बड़ी अच्छी तन्दुरुस्तीमें है। कुनैनसे लोग रोग-मुक्त तो हो जाते हैं परन्तु वे दूसरे रोगोंसे पीड़ित हो जाते हैं। विशेष रूपसे ‘मलेरिया ज्वर ' वाले रोगी कुनैनसे ठीक होते हैं, ऐसा माना जाता है। परन्तु मलेरिया उनका पिण्ड सदाके लिए शायद ही छोड़ता है। जो ऊपर लिखे अनुसार प्राकृतिक उपचार करते हैं, ऐसे मलेरियाके रोगियोंको मैंने पूर्ण रूपसे स्वस्थ हुआ देखा है।

बुखारके दिनोंमें बहुत लोग दूधपर रहते हैं, पर मेरा अनुभव बताता है कि बुखारकी शुरुआतमें दूध लेना हानिकारक है। उसे पचाना भी भारी पड़ता है। यदि दूध देना ही पड़े तो गेहूँकी काफीके साथ या थोड़े-से चावलके आटेके पानीके साथ उबाल कर दिया जाये, यह समुचित जान पड़ता है। किन्तु अत्यन्त उग्र या सख्त बखारमे तो इस प्रकार भी दूध नहीं दिया जाना चाहिए। ऐसे समयमें तो नीबूका