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७०. सम्भावना

अब श्री फिशरके विधेयकके अन्तर्गत हमारे देशवासियोंकी ठीक क्या स्थिति होगी इसे निश्चित रूपमें बता सकना कठिन है। यह तो मानना ही होगा कि कुछ संशोधन (हम उन्हें रियायत कहने से इनकार करते है) निःसन्देह ठीक दिशामें किये गये है। किन्तु यदि सत्याग्रहको पुनः जारी नहीं होने देना है, और यदि १९११ के अस्थायी समझौतेकी शर्तोंका पालन करना है, तो अभी बहुत कुछ और किया जाना चाहिए। वर्तमान अधिकारोंमें से एकका भी त्याग नहीं किया जा सकता। सत्याग्रही दूसरोंके अधिकारोंको बेचकर शान्ति और जेलसे बचनेका सौदा नहीं कर सकते वे ऐसी हिम्मत ही नहीं कर सकते। इसपर भी, १९०६ के केप प्रवासी अधिनियमके अन्तर्गत, आफ्रिकामें उत्पन्न भारतीयोंको केपमें प्रवेश करनेका जो अधिकार आज प्राप्त है, उसे इस विधेयकके जरिये छीना जा रहा है। दक्षिण आफ्रिकामें जन्मे भारतीय, यानी वस्तुतः नेटालमें जन्मे भारतीय, केप जाने के लिए तरस नहीं रहे हैं। इन तमाम वर्षों में उन्होंने ऐसी इच्छा शायद ही कभी जाहिर की हो। परन्तु इसके कारण वे केपमें प्रवेश कर सकनेका अपना अधिकार नहीं छोड़ सकते। सत्याग्रही ऐसे विधेयकका साथ भी नहीं दे सकते जो उन्हें ऐसे अधिकारसे वंचित करता है।

श्री फिशरने ऐडवोकेट श्री अलेक्जेंडर द्वारा प्रस्तुत विवाह-सम्बन्धी संशोधन स्वीकार कर लिया है, इससे तो हमें यही मानना चाहिए कि इस मुद्देपर उनकी इच्छा हमारी बात माननेकी है। पर श्री अलेक्जेंडरका दोष न होते हुए भी संशोधनमें एक घातक त्रुटि रह गई है। इसमें कहा गया है कि जिस जगह विवाह हुआ हो वहाँ उसका पुनः पंजीयन कराया जाये। श्री अलेक्जेंडर नहीं जानते कि भारतमें विवाहका पंजीयन करानेकी कोई प्रणाली नहीं है। इसलिए उसका पंजीयन प्रमाणपत्र पेश करना सम्भव नहीं है। इस असम्भव शतके कारण संशोधनका उद्देश्य ही व्यर्थ हो जाता है।

अवांछनीय स्त्रियोंका प्रवेश रोकनेकी दृष्टिसे भी विवाहोंका पंजीयन जरूरी नहीं है। पहली बात तो यह है कि संशोधन सम्बन्धित पक्षोंपर अपने-अपने धर्मके अनुसार विवाह करनेकी शर्त लगाता है। भारतीय विवाह बड़े पवित्र ढंग और विस्तृत विधिसे सम्पन्न होते हैं तथा कई दिनों तक, और कई मामलों में तो महीनों तक चलते है। वस्तुतः यूरोपीय ईसाई विवाहोंमें विवाहके पूर्व उसकी जो घोषणा की जाती है, मामूली भारतीय विवाहोंमें भी उससे कहीं ज्यादा विज्ञप्ति और धूमधाम होती है और यह प्रचार तथा धूमधाम पंजीयनकी किसी भी प्रणालीसे कहीं अधिक कारगर व्यवस्था है। दूसरे, यह एक सुविदित तथ्य है कि पिछले तीससे भी अधिक वर्षों से लेकर अभी हाल तक भारतीय स्त्रियाँ केवल अपने पतियोंके जबानी वक्तव्यपर इस देशमें प्रवेश करती रही हैं। फिर भी इस अवधिमें किसी अवांछनीय भारतीय स्त्रीके यहाँ आनेका शायद ही कोई उदाहरण हो। इसलिए सिनेटमें विधेयकपर विचार होते समय पंजीयनसम्बन्धी धाराको निकाल देनमें कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए।