५७८ सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय सकती; वह अगर कुछ कह सकती है तो साम्राज्य सरकारके माध्यमसे ही और इसलिए इन मामलोंमें साम्राज्य सरकार ही उनकी सुरक्षाका एकमात्र साधन है।... मैं मेजर सिल्बर्नसे पूछना चाहूँगा कि यदि वे भारतमें हों और मेरी ही स्थितिमें हों तो वे क्या करेंगे ? मेरा खयाल है, वे वही करेंगे जो कोई भी ब्रिटिश जन करेगा, अर्थात्, अपने दुःख-दर्दको साम्राज्य सरकारके सामने रखेंगे (ख) गोखलेने ७ नवम्बर, १९१२ को मैरित्सवर्गमें भाषण देते हुए कहा था कि एक ओर एक विस्तीर्ण आवादीके बीच बिखरे हुए मुट्ठी भर यूरोपीय समाजके लोग हैं... दोनों स्तर दो हैं, और उनके पारस्परिक संसर्गसे बहुतसी समस्याएँ पहले ही उत्पन्न स्वभावतः यूरोपीय समाज अपनी सभ्यताको देशमें विशाल वतनी प्रजातियों की सभ्यताके हो चुकी हैं । सुरक्षित रखना चाहता है. .. I अब इसके अतिरिक्त यहाँ भारतीय तत्त्वका समावेश हो गया है । इस समय उनकी संख्या बहुत कम है, किन्तु बहुत-से यूरोपीयोंके मनमें यह भय बना हुआ है कि यदि कुछ सख्त कदम नहीं उठाये गये तो उनकी संख्या में वृद्धि होती जायेगी और सम्भव है कि एक दिन वे यूरोपीय समाजपर छा जाये । मुझे अब लगता है कि भारतीय जिन बातोंकी शिकायत करते हैं और शायद सही ही करते हैं, उनमें से बहुतोंका कारण यही भय है । इसके बाद आती है व्यापारिक स्पर्धाकी बात । यूरोपीयोंको यह भय है कि अपने अपेक्षाकृत सादे जीवन-स्तर के कारण भारतीय व्यापारी अपना माल यूरोपीयोंकी वनिस्वत सस्ते दामों पर बेचेंगे । किन्तु यह ऐसा सवाल है, जिसके दो पहलू हैं । यह शिकायत समस्त समाजकी नहीं बल्कि उन टुटपुँजिये व्यापारियोंकी शिकायत है, जिन्हें इस स्थिति के कारण असुविधा होती है। समाज तो यदि कुछ चाहता है तो यह कि वह चीजें सस्तीसे सस्ती कीमत पर खरीद सके। (इंडियन ओपिनियन, १६-११-१९१२)। ८ नवम्बरको डर्बन टाउन हालमें अपने स्वागत भाषणके दौरान हॉलेंडरने' उपर्युक्त भाषण में से केवल दो चुनी हुई उक्तियोंका स्मरण करते हुए कहा कि मैं मैरित्सवर्ग में दिये गये भाषणकी दो उक्तियोंका उल्लेख विशेष रूपसे करनेका साहस करता हूँ। बताया जाता है कि श्री गोखलेने कहा, मैं यह महसूस करता हूँ कि जहाँ दो स्तरकी सभ्यताओंका विकास साथ-साथ हो रहा हो, वहाँ उनके पारस्परिक संसर्गसे अवश्य ही गंभीर कठिनाइयाँ उत्पन्न होंगी. .। मैं इन दो उक्तियोंका स्वागत करता हूँ, क्योंकि इससे बहुत ही स्पष्ट रूपसे यह सिद्ध हो जाता है कि हमारे विशिष्ट अतिथि अपने कर्तव्यका निर्वाह उदात्त भावसे कराना चाहते हैं और वे यह महसूस करने को तैयार हैं कि... इस प्रश्नके सम्बन्धमें एकाधिक दृष्टिकोण हो सकते हैं। बल्कि मेरा तो निश्चित मत है कि दक्षिण आफ्रिका आनेके बादसे श्री गोखलेने यह महसूस किया है कि एक और भी प्रश्न है और वह अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण है और इसके सामने इस देशके अन्य सारे प्रश्न गौण हैं । यह वह प्रश्न है जिसे हम वतनी प्रश्नके नामसे जानते हैं । प्रजाति और रंगसे सम्बन्धित अन्य सारे प्रश्न एक-दूसरे से इस प्रकार अन्तर्सम्बद्ध हैं कि यदि कोई उनमें से किसी एकका समाधान ढूँढनेका प्रयत्न करे तो उसे दूसरे प्रश्नोंकी मौजूदगीके कारण बड़ी कठिनाईका सामना करना पड़ेगा । [ अंग्रेजीसे ] ऑनरेबल मि० गोखलेज विजिट टु साउथ आफ्रिका, १९१२, इंटरनेशनल प्रिंटिंग प्रेस, फीनिक्स और इंडियन ओपिनियन, १६-११-१९१२ से । १. डर्बनके महापौर एफ० सी० हॉलेंडर | Gandhi Heritage Portal
पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 11.pdf/६१६
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