परिशिष्ट ५६३ ३. परन्तु ट्रान्सवाल प्रशासनने उन्हें ऐसी बस्तियोंमें भी भूसम्पत्तिकी निःशुल्क मिल्कियत देने या लम्बी अवधिका पट्टा देनेसे इनकार कर दिया है, और उन्हें बाड़ोंका, जिनमें ये बस्तियाँ विभाजित हैं, केवल २१ वर्षका पट्टा प्राप्त करनेकी अनुमति दी है। जोहानिसबर्ग में तो केवल माहवारी किरायेपर ही भूमि प्राप्त की जा सकती है । ४. किन्तु, किसी भारतीय द्वारा भूसम्पत्तिकी मिल्कियतके कानूनी निषेधके बावजूद ट्रस्ट-जैसी एक नामाचारके लिए भारतीयोंके यूरोपीय मित्रोंके नाम इस्तान्तरित कर दिया जाता है, किन्तु चीज बनानेका रिवाज बन गया । इस रिवाजके मुताबिक किसी भी जायदादका स्वामित्व उसकी खरीद और भुगतान कोई भारतीय व्यापारी ही करता है और वही उसका वास्तविक मालिक भी होता है । इस प्रकारकी जायदादें सट्टेबाजीकी गरजसे नहीं खरीदी गई थीं, बल्कि व्यापार बढ़ानेकी गरजसे खरीदी गई थीं, और उनके वास्तविक भारतीय मालिकोंमें से लगभग सभीने हजारों पौंडकी लागतसे इन जायदादों पर अपने रहने और व्यापार करनेके लिए खासे ठोस और आधुनिक ढंगकी इमारतें बनवाई। - ५. इस बातके पर्याप्त प्रमाण हैं कि ये सारी कार्रवाइयाँ कानूनसे बचनेकी गरजसे नहीं की गई । ६. १८८५ का कानून ३ लागू होनेसे पहले, क्लार्क्सडोंपैकी व्यापारिक पेढी, मेसर्सं मुहम्मद इस्माइलने सार्वजनिक नीलाम में कस्बेमें कुछ दूकानें खरीदीं इस शर्त पर कि वे उनके लिए मासिक परवानेका शुल्क देंगे । ये दूकानें उनके नाम रजिस्टर कर दी गई । लार्क्सडॉर्पके बाड़ा-मालिकोंका आम रिवाज यह बन गया कि वे दूकानोंका परवाना शुल्क हर छमाहीके हिसाब से दें । मेसर्स मुहम्मद इस्माइल भी इसी प्रकार अपने शुल्कका भुगतान करते थे । कुछ समय बाद एक भारतीय-विरोधी आन्दोलन खड़ा हुआ, गणतांत्रिक सरकारने हस्तक्षेप किया, और बिना किसी सुनवाईके और भारतीय मालिकोंको कोई मुआवजा दिये बगैर उनके बाड़े जब्त कर लिये गये । भारतीय मालिकोंने लूटपाटकी इस अनुचित और अकारण कार्रवाईका जोरदार विरोध किया । लम्बी लिखा-पढ़ीके बाद सरकारने भारतीय व्यापारियोंको सूचित किया कि उन्हें मिल्कियत रखनेकी फिर अनुमति दे दी जायेगी, बशर्ते कि भूमि-पंजी (लैंड रजिस्ट्री) में उन्हें किसी यूरोपीयके नाम रजिस्टर करवाया जाये । यह शर्त मंजूर कर ली गई और स्वयं अधिकारियोंके सुझावपर भूमिको उपर्युक्त ढंगसे हस्तान्तरित कर दिया गया था । ७. स्वर्गीय श्री अबूबकर आमदने, जो दक्षिण आफ्रिकाके अग्रणी भारतीय व्यापारी थे, १८८५ में कानून लागू होनेसे पहले, प्रिटोरियामें चर्च स्ट्रीटपर एक दूकान खरीदी थी, लेकिन हस्तान्तरणको अनुमति उन्हें कानून लागू होनेकी तारीखसे पहले नहीं दी गई थी। भारतीय मालिककी मृत्यु हो गई, और सीधे उनके उत्तराधिकारियोंके नाम दूकानका हस्तान्तरण करनेकी अनुमति नहीं दी गई, बल्कि उनके एवज में उनके द्वारा नामजद कतिपय यूरोपीयोंके नाम की गई । इस अन्यायपूर्ण स्थितिको ट्रान्सवालकी नई सरकारने १९०७ में अनुभव किया, और उसने उसी वर्ष अधिनियम २ में उत्तराधिकारियों के नाम हस्तान्तरणकी व्यवस्था करनेका प्रयत्न किया । इस बीच जायदाद मेरे नाम दर्ज थी। किन्तु, सर्वोच्च न्यायालय में प्रार्थना पत्र देनेपर उसने निर्णय दिया कि अधिनियम २ की व्यवस्थाओंकी वाक्य-रचना इस प्रकार की गई है कि उत्तरा- धिकारियोंके नाम हस्तान्तरणका निषेध होता था । आखिर १९०८ के अधिनियम ३६ को बनाते समय मेरे नाम दर्ज दूकानको उत्तराधिकारियोंके नाम हस्तान्तरित करनेकी व्यवस्था की गई और इस सारी कार्यवाही को संसद द्वारा निर्मित ट्रान्सवालके अधिनियमकी एक धारामें लिपिबद्ध कर दिया गया । ८. १९०५ में सैयद इस्माइल तथा एक अन्य बनाम जैकब्स, एन० ओ० वाले अपीलके मामले में अदालत ने ऐसे वास्तविक ट्रस्टोंको स्पष्ट रूपसे मान्यता प्रदान कर दी। कुछ महीने बाद जब ऐसे उठाई और विभाग द्वारा कानूनी हस्तान्तरणोंकी वैधतापर विलेख कार्यालय (डीडस ऑफिस ) ने शंका सम्मति ली गई तो यह निर्णय हुआ कि इस मामलेमें सर्वोच्च न्यायालयके निर्णयसे इस प्रकारके Gandhi Heritage Porta
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