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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


उचित प्रतीत होता है कि साम्राज्यके कई भागोंमें भारतकी वस्तुस्थितिके विषयमें ऐसी अनेक धारणाएँ फैली हुई हैं जो मूलतः गलत हैं । . . .

...किन्तु कुल मिलाकर प्रवास सम्बन्धी कठिनाई कुछ क्रमिक विधानोंके द्वारा दूर की जा चुकी है। इन विधानोंसे भेदभावकारी और अपमानजनक भाषाका प्रयोग किये बिना एशियाइयोंका अति-प्रवास रोकने में सफलता मिल गई है । यह बात मान ली गई है कि वे लोग, जिनके रहन-सहनका तरीका अधिराज्योंके अपने राजनीतिक और सामाजिक आदर्शों से भिन्न है, अधिराज्योंमें स्थायी निवासीके रूपमें प्रविष्ट नहीं किये जायेंगे ।

किन्तु अस्थायी आगन्तुकोंके प्रवेशको बात, जिसपर आपत्ति लागू नहीं होती, अभी सन्तोषजनक रूपसे तय नहीं हुई है । यदि यह प्रश्न गम्भीर न होता तो यह बात हास्यास्पद कही जा सकती थी कि जो विनियम कुलियोंको ध्यानमें रखकर बनाये गये थे, उनका प्रभाव उन सभी राजाओंपर, जो महामहिम सम्राट के मित्र (अलाइ ) हैं और जिन्होंने अपनी सेनाएँ उनको सौंप दी हैं; या जो सज्जन साम्राज्य की प्रिवी कौंसिलके सदस्य हैं, या जिन्हें महामहिम सम्राट के निजी अंगरक्षक होनेका सम्मान प्राप्त है, पड़ता है । इसमें शक नहीं कि यदि ऐसी विशिष्ट स्थितिवाला कोई व्यक्ति किसी उपनिवेशमें आयेगा तो वह लौटाया नहीं जायेगा । किन्तु यह प्रसिद्ध है कि इन भारतीय सज्जनोंमें यह भावना बहुत ही प्रबल है कि जहाँ वे यूरोपके किसी भी देशकी राजधानीमें उसके सर्वोत्तम समाजमें स्वतन्त्रतापूर्वक आ-जा सकते हैं, वहाँ वे कतिपय उपनिवेशोंमें छोटे-छोटे अधिकारियोंकी क्षोभकारी पूछताछसे गुजरे बिना पैर नहीं रख सकते, जब कि भारतमें बड़ी-बड़ी नौकरियोंके द्वार महामहिमके उपनिवेशवासी प्रजाजनोंके लिए खुले हैं।

ब्रिटिश सरकारने पिछले कुछ वर्षोंमें भारतमें नागरिकताको भावनाको उत्पन्न और पुष्ट करनेके जो प्रयत्न किये हैं, उनमें निःसन्देह भारतीयों के प्रति उपनिवेशोंमें आम तौरपर फैली हुई कटुताकी भावनासे बाधा पड़ी है । ताजके प्रति भारतीयोंके विशाल लोक-समुदायकी वफादारी एक विशिष्ट तथ्य है और यह ध्यान देने योग्य है कि ब्रिटिश शासनकी छोटी-छोटी बातोंकी आलोचना करनेवाले बहुत-से भारतीय सच्चाईके साथ इस वफादारीका अनुभव करते हैं । अभी हालमें जो संवैधानिक परिवर्तन किये गये हैं। उनसे उस देशके लोगोंको उसके शासनमें अधिक भाग दिया गया है और उससे भारतीयोंको सीधे सरकारके ध्यानमें यह बात लानेका और भी अधिक अवसर मिला है कि साम्राज्य में भारत के स्थानके प्रश्नपर उनके क्या विचार हैं। भारतीयों और उपनिवेशोंमें उपनिवेशोंके प्रश्नपर ही गम्भीर मतभेद हैं और यही एक ऐसा प्रश्न हैं जिसपर भारतमें राजद्रोहको भड़कानेवाले आन्दोलनकारी और नरम विचारके भारतीयोंके पूर्ण राजभक्त प्रतिनिधि एक ही मत रखते हैं । भारत सरकार यदि उपनिवेशोंके दृष्टिकोण से सहमत बनी रहती है तो वह भारतको निराशाकी उस व्यापक भावनासे मुक्त नहीं रख सकती जो उपनिवेशों द्वारा उसे प्रतिष्ठाका अधिकारी न माननेकी इच्छासे उत्पन्न होती है । उच्च-शिक्षा प्राप्त तथा उच्चवंशीय अनेक भारतीयोंको साम्राज्यके दूसरे भागोंको देखनेकी सहज और सराहनीय इच्छा होती हैं; किन्तु इस समय उनका उपनिवेशोंमें जानेका मार्ग अवरुद्ध है । महामहिम सम्राटको सरकारको पूरी आशा है कि ऐसी कार्रवाई जो निम्न श्रेणीके भारतीयोंका इतनी बड़ी संख्या में प्रवेश रोकनेके लिए आवश्यक है कि उससे उपनि- वेशोंकी आबादी ही बदल जाये और गम्भीर स्थानीय कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जायें, उन आगन्तुकोंपर लागू न की जायेगी जिनका सामाजिक दर्जा अच्छा है, जो अच्छी स्थितिवाले ऐसे व्यापारी हैं जिनका भारत से बाहर व्यापार है या जो विश्वविद्यालयके उपाधि प्राप्त विद्वान हैं ।

(२) उपनिवेशों में रहनेवाले भारतीयोंका दर्जा

केवल दक्षिण आफ्रिकामें ही भारतीय निवासियोंकी आबादी कुछ ज्यादा है और वह मुख्यतः नेटाल सरकार द्वारा जानबूझकर भारतीय गिरमिटिया मजदूरोंके बुलाये जानेके कारण है। गिरमिटिया भारतीयोंका लाया जाना तब आरम्भ हुआ था जब नेटाल शाही उपनिवेश था। किन्तु वह उत्तरदायी सरकार बननेपर