ट्रान्सवालके सर्वोच्च न्यायालयने १९०३ में निर्णय दिया था कि निर्दिष्ट बस्तियोंसे ही बाहर व्यापार करनेवाले भारतीयोंको भी व्यापारिक परवाने दिये जाने चाहिए, परन्तु भारतीयोंको निर्दिष्ट बस्तियोंमें ही निवास और व्यापार करनेपर विवश करनेके उद्देश्यसे पास किया गया सबसे पहला कानून था फ्रीडडॉ बाड़ा अधिनियम । वस्ती अधिनियम और स्वर्ण कानूनने तो भारतीयोंकी बड़ी-बड़ी आशंकाको भी सही सिद्ध कर दिया है । हालाँकि १८८५ के कानून ३ की एक व्यवस्थाके अनुसार अचल सम्पत्तिका स्वामित्व भारतीयोंके नामपर दर्ज नहीं हो सकता, किन्तु ट्रान्सवालके न्यायालयोंने यूरोपीयों और भारतीयोंके बीच हुए ऐसे करारोंको, जिनसे भारतीयोंको उसका न्यायिक स्वामित्व प्राप्त होता है, मान्यता दी है, जैसा कि सैयद इस्माइल तथा एक अन्य बनाम एस० जैकन्स एन० ओ० के मुकदमेमें हुआ था । परन्तु इन नये कानूनों का परिणाम यह होगा कि ऐसी अचल सम्पत्तिके पंजीयित यूरोपीय स्वामियों और न्याय्य भारतीय स्वामियोंको दण्डित किया जायेगा । मेरे जैसे यूरोपीय स्वामियोंपर काफी बड़ा जुर्माना इसलिए किया जा सकेगा कि उन्होंने भारतीय रंगदार लोगोंको उनकी अपनी जगहमें निवास करनेकी अनुमति दी; और भारतीय स्वामियोंकी सारी सम्पत्तिको, जो उनकी अपनी ही है, जब्त किया जा सकेगा । इन विविध कानूनों के फलस्वरूप भारतीयोंके विनियोजित धनकी सुरक्षा खतरे में पड़ जायेगी और भारतीय व्यापारियोंकी अनिवार्यतः ऐसी पृथक बस्तियोंमें जाकर रहना पड़ेगा जहाँ वे कोई कारोबार नहीं कर सकते और जहाँ अपने मौजूदा ग्राहकोंके साथ उनका कोई भी सम्बन्ध बना नहीं रह सकता । उनमें से सैकड़ों बिल्कुल बरबाद हो जायेंगे और बिना अपने किसी अपराधके इतनी क्षति उठानेके कारण उनको आफ्रिका छोड़नेपर विवश होना पड़ेगा। इस प्रकार बरबाद होनेवालोंमें से कई ऐसे होंगे जिन्होंने सत्याग्रहियोंके साथ सहानुभूति तो रखी है और रुपये पैसेसे उनकी सहायता भी की है, पर स्वयं कभी संघर्ष में सक्रिय रूपसे भाग नहीं लिया । परन्तु यदि ये कानून लागू कर दिये गये और उनके लागू कर दिये जानेकी आशंका सर्वथा सकारण है, तो मुझे कोई सन्देह नहीं है, कि अभी जिस संघर्षको समाप्त मानकर सन्तोष किया जा रहा है, उससे भी कहीं अधिक कटु संघर्ष शुरू हो जायेगा; क्योंकि उन विनाशकारी प्रयत्नोंके विरोधमें समाजके सभी लोगोंके कमर कसकर एक हो जानेकी पूरी सम्भावना है । आजकल जिस नीतिपर अमल किया जा रहा है, वह केवल परेशान करनेकी नीति नहीं है, इसका एक जाना समझा हुआ उद्देश्य है और वह यह कि जिन वैध अधिवासी भारतीयोंको किसी और तरीकेसे नहीं हटाया जा सकता, उनकी स्थिति बिलकुल असहनीय बनाकर उन्हें देश छोड़नेपर विवश कर दिया जाये और देखने में यही लगे कि वे अपनी इच्छासे देश छोड़ कर जा रहे हैं ।
४. ये बातें केप और नेटालके भारतीयोंपर भी काफी हद तक लागू होती हैं । केपके प्रवासी कानूनका उपयोग निवासी भारतीयोंकी पहलेसे घटती जा रही संख्याको और घटानेके लिए किया गया है। अभी हाल ही में कुछ ऐसे मामले सामने आये हैं जिनमें अनुपस्थितिके लिए मंजूर अवधिसे दो-तीन दिन भी ज्यादा अनुपस्थित हो जानेपर प्रान्तके काफी पुराने निवासी भारतीयोंको प्रवेश नहीं दिया गया; उनमें से कुछ तो ऐसे भी हैं, जिनका कारोबार वहाँ अभीतक फैला हुआ है। नेटाल्के कानून में अधिवासकी परिभाषा है, किन्तु केपके कानूनमें अधिवासकी कोई परिभाषा नहीं दी गई है, और उसका अमल जिस प्रकार किया जा रहा है, उससे लोगोंको लगातार कष्ट होता रहता है। सच तो यह है कि इन दोनों प्रान्तोंके भारतीयोंका ख्याल है कि प्रवास-सम्बन्धी प्रशासनका रवैया उनके प्रति सबसे अधिक कठोर और असहानुभूतिपूर्ण है, और उसके अधिकारी यह मान कर चलते हैं कि वहाँ पूर्व अधिवासी भारतीयको किसी भी बहाने पुनःप्रवेश न करने देना ही उनका कर्तव्य है । प्रवासी अधिकारी बहुधा बड़े मनमाने ढंगले काम करते हैं मन्त्री श्री हरकोर्ट १४ तारीखके तारोंको देखकर स्वयं ही निष्कर्ष निकाल लेंगे कि ये अधिकारी बहुधा न्यायालयोंके आदेशोंका अपमान और उल्लंघन भी करते हैं । परन्तु जिन भारतीयोंको उनका शिकार बनना पड़ता है उनमें से हरएककी सामर्थ्य तो इतनी नहीं होती कि वह प्रान्तीय न्यायालयोंकी शरण ले सके;