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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

संघर्ष के कितने प्रशंसक हैं। श्री टाटाने सत्याग्रहियोंको ही नहीं, दक्षिण आफ्रिकाकी समस्त भारतीय जनताको अपना चिर ऋणी बना लिया है। उन्होंने सत्याग्रहियोंकी परेशानियाँ कम कर दी हैं । जो लोग इस संघर्षमें संलग्न हैं, उनका उत्साह यह देख-कर बढ़ जाता है कि ऐसे प्रतिष्ठित भारतीय भी हमारे पृष्ठपोषक हैं । और इससे उन्हें अपना लक्ष्य भी कुछ समीप आ गया जान पड़ता है। जो लोग पूर्वग्रहके कारण हमारे विरोधी बने हुए हैं, उनपर इस प्रकारकी सहायताका जो नैतिक प्रभाव पड़ता है, वह तो स्पष्ट ही है।

[ अंग्रेजीसे ]

इंडियन ओपिनियन, १०-८-१९१२


२५५. शेरिफकी सभा

भारत में किसी बड़े नगरके शेरिफ द्वारा बुलाई गई सभाकी वही वकत मानी जाती है जो यहाँ, समझ लीजिए, डर्बनके महापौर (मेयर) द्वारा बुलाई हुई सभाकी हो सकती है । भारतमें "शेरिफ " शब्दका अर्थ वही नहीं है जो हम यहाँ दक्षिण आफ्रिकामें समझते हैं । " शेरिफ" का पद अवैतनिक होता है और यह भारतके अत्यन्त प्रतिष्ठित नागरिकोंको प्रदान किया जाता है। हमारे जिन पाठकोंको भारतके विषयमें अधिक मालूम नहीं है वे भी अब जान जायेंगे कि हालमें बम्बईमें शेरिफके बुलाये जानेपर जो सार्वजनिक सभा हुई थी उसका क्या महत्व है। स्पष्ट है कि इस सभा में बम्बईकी जनताके सभी वर्गोंका प्रतिनिधित्व था। और इसीलिए इसके प्रस्तावोंका असर पड़े बिना नहीं रह सकता। सभाने ब्रिटिश उपनिवेशोंमें बसे हुए अपने देशवालोंकी समग्र स्थितिपर विचार करके सर्वथा उचित ही किया । पूर्वी आफ्रिकाके यूरोपीय हमारे देशवालोंको उस ब्रिटिश-रक्षित प्रदेशसे खदेड़कर बाहर निकाल देना चाहते हैं । वे इतना तक नहीं समझते कि यदि भारतीय वहाँसे चले जायें तो वह देश शीघ्र ही भयंकर वीराने में परिवर्तित हो जायेगा। कैनेडा अपने यहाँ कानूनन बसे हुए भारतीयोंकी पत्नियों तक को प्रवेश नहीं देता कि वे अपने पतियोंके साथ रह सकें। इस प्रकार वह न्याय और शिष्टताके सभी नियमोंकी उपेक्षा कर रहा है। अपने सफल प्रतिस्पर्धियोंके प्रति द्वेष तो समझमें आ सकता है, परन्तु स्वार्थके वशीभूत होकर किये गये पागल- पनके कामोंको समझना असम्भव है । कहनेको कैनेडा ब्रिटिश उपनिवेशोंमें सबसे पुराना और सबसे अधिक सभ्य उपनिवेश है, परन्तु वहाँ इन दिनों यही सब हो रहा है। पारसी बैरॉनेटके सभापतित्वमें की गई इस सभामें इन्हीं सब प्रश्नोंपर विचार किया गया था । दूर-दूरके देशोंमें बसे हुए हम लोगोंको अधिकार है कि हम अपनी मातृभूमि से सहायताकी आशा करें। ज्यों-ज्यों समय बीतता जाता है और भारतसे बाहर गये हुए लोगोंकी दशाके बारेमें देशको अधिक व्यापक जानकारी होती जाती है, त्यों-त्यों वहाँ सहानुभूति बढ़ती जाती है ।