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स्वदेशमें अकाल


आनेवाली प्रणालियों और रिवाजोंको उखाड़ फेंकने के पूर्व हमें उचित है कि अत्यधिक सावधानी बरतें। हाँ, यदि हम यह बात पक्की तौरपर जानते हों कि वे रिवाज और प्रणालियाँ अनैतिक है तो बात दूसरी है।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन,९-१२-१९११

१६३. स्वदेशमें अकाल

हमने अकाल सहायता-कोष[१] खोला है। श्री गज्जरने इसमें पहली रकम दी है। हमें जो पत्र मिले है उनसे हमें मालूम हुआ है कि अनेक भारतीयोंने लोगोंके पास जा-जाकर धन-संग्रह करनेका जिम्मा लिया है। जिन्होंने अकालकी भीषणता समझी है उनसे हमारा यह छोटा-सा निवेदन है :

हम बहुत-से कोषोंमें चन्दा दे चुके हैं यह कहकर वे संग्रहकर्ताओंको टाल न दें। वे चन्दा सीधा भेजने में भी न हिचकें। जिनके पास धन है उन्हें अनेक प्रकारके कोषोंमें रुपया देना पड़ता है। किन्तु अकाल-सहायता कोषकी तुलना दूसरे कोषोंसे नहीं की जा सकती। अकाल-सहायता कोषमें तो गरीबसे-गरीब भारतीय भी चन्दा दे सकता है। जिसे रोटी और घी मिलता है वह एक निश्चित अवधि तक घी खाना छोड़ सकता है और इस प्रकार बचाया गया धन इस कोषमें दे सकता है। उसे याद रखना चाहिए कि उसे रोटी और घी मिलता है, जब कि अकाल-पीड़ितोंको तो रोटी भी मयस्सर नहीं होती। पशुओंके लिए चारा तक नहीं है। उनके तथा पशुओंके शरीर अस्थिपंजर-मात्र रह गये है। अगर यह बात लोगोंके दिलों में पैठ जाये तो ऐसा एक भी भारतीय न होगा जो थोड़ा-बहुत रुपया इस कोषमें न दे सके।

हम स्वीकार करते है कि जिस दानको हम अपने हाथों करते हैं और जिसका उपयोग अपनी आँखोंसे होता देखते है उसके बराबर कोई दूसरा दान नहीं। हमारे देशमें जहाँ-जहाँ पश्चिमका प्रभाव नहीं पहुंच पाया है, वहाँ तो ऐसा ही है। गांवोंके लोग गाँवके तरीकेसे दान करते हैं। घर आये हुए गरीबको वे अपने भोजनका भी एक भाग दे दिया करते हैं। उन्हें स्वप्नमें भी यह नहीं सूझता कि वे जिन्हें देख नहीं सकते उन्हें सहायता देनेकी इच्छा करें। वे जानते है कि ऐसा करनेका विचार करना केवल दम्भ है और खुदाईका दावा करने के समान है।

किन्तु हम तो पश्चिमकी हवामें बह रहे हैं। यही हवा हमें इस देश में लाई है। लोग अकालके दिनोंमें बहुत कष्ट पाते हैं इसका कारण पश्चिमका वातावरण ही है। ऐसे समय में हमारा क्या कर्तव्य है ? हमारा सर्वोपरि कर्तव्य तो यह है कि हम इस राक्षसी वातावरणसे मुक्त होकर तुरन्त वहाँ पहुंचे जहाँ अकाल-पीड़ित लोग

कष्ट भोग रहें हैं और उन्हींके जैसे बनकर उन्हें सीधे रास्तेपर ले जायें। हाँ, यह

११-१३
  1. देखिए "देशमें अकाल", पृष्ठ १७७ ।