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१०३. उपनिवेशमें जन्मे भारतीयोंसे

पिछले सप्ताह इस पत्रमें डर्बनकी वतनी औद्योगिक प्रदर्शनीपर हमने एक लेख छापा था।[१] इस उपनिवेशमें जन्मे जिन मित्रोंने उस विशेष लेखको नहीं पढ़ा हो वे कृपा करके उसे जरूर पढ लें और उसपर विचार करें। उसे एक ऐसे व्यक्तिने लिखा है जो स्वयं आदर्शवादी हैं और जानते हैं कि वे क्या लिख रहे हैं। इसके अतिरिक्त वे भारतीय पक्षके समर्थक हैं, और उसके लिए हमारे साथ काम भी कर रहे हैं। इसलिए जिन भारतीयोंने अपने जीवनके ढाँचेका अभी निर्माण नहीं किया है अथवा यदि कर लिया है तो जिन्हें उससे पूरा सन्तोष नहीं है उन्हें हमारे इस लेखकके विचारोंपर अवश्य ही मनन करना चाहिए। दक्षिण आफ्रिकामें हमारा भविष्य बहुत अधिक अंशोंमें उनके आचरणपर निर्भर करता है, जिनका जन्म इसी देशमें हुआ है और जिनके लिए भारत केवल एक भौगोलिक नाम है।

हम अपने लेखकके इन शब्दोंसे सहमत हैं कि वकीलोंके दफ्तरोंमें मोढ़ोंपर बैठे-बैठे ऊँघते रहना कोई उपयोगी आकांक्षा नहीं है। हमारे मित्र यदि एक क्षण भी सोचें तो उनकी समझमें आ जायेगा कि क्लार्को या व्यापारियोंसे ही किसी राष्ट्रका निर्माण नहीं होता। यूरोपीय तो बहुतेरे उपयोगी धन्धे करते हैं। परन्तु जनरल बोथा उन्हें भी “खेती-बाड़ीकी ओर लौटने" की सलाह देते है। संसार तो किसानों और उनके लिए अनिवार्य दूसरे धन्धेवालों—उदाहरणार्थ बढ़ई, मोची, लुहार, राज, ईंटे पाथनेवाले, दर्जी, नाई आदि—के परिश्रमपर जीता है। परन्तु दुःखकी बात है कि उपनिवेशमें पैदा हुए बहुत कम भारतीय इन वस्तुतः इज्जत देनेवाले (क्योंकि वे उपयोगी है) धन्धोंको सीखना और उन्हें अपनाना पसन्द करते हैं। हम सब इस देशमें उपयोगी कामोंमें लगे हुए वतनियों तथा भारतीयोंके महान परिश्रमपर ही जी रहे हैं। इस अर्थमें वे इस भखण्डमें बसे हए हम सब लोगोंकी अपेक्षा और उन यूरोपीयोंकी अपेक्षा भी, जो किसी प्रकारके उत्पादक धन्धेमें नहीं लगे हुए है, अधिक सभ्य है। भले ही इस देशका एक-एक सटोरिया यहाँसे चला जाये, हर वकील अपना दफ्तर बन्द कर दे और हर व्यापारी अपना कारोबार समेटकर चला जाये फिर भी इस देशमें, जिसे प्रकृतिकी कृपासे ऐसी सुन्दर आबोहवा मिली है, हम आरामसे रह सकते हैं। परन्तु यदि महान् वतनी जातियाँ एक हफ्ते के लिए भी अपने कामोंको छोड़ दें तो शायद हम भूखों मरने लग जायें। इसलिए उनके उत्पादक उद्योगोंको

 
  1. लेखकने प्रदर्शनीमें दिखाई गई चीजोंके आधारपर वतनियोंके उद्यम, हस्त-कौशल और कुशाग्र बुद्धिकी प्रशंसा की थी। उसके विचारमें उपनिवेशमें जन्मे भारतीय इन उपयोगी उद्योगोंको सीखना नहीं चाहते थे। उसने यह भी कहा था कि वर्तमान शिक्षासे उनके बीच केवल क्लार्क पैदा होंगे, जबकि उन्हें समाजोपयोगी बनाने के लिए. तथा जीवनमें सफल होनेके लिए कृषि और अन्य उपयोगी उद्योगोंका व्यावहारिक प्रशिक्षण देना आवश्यक है।