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२३३. परवाना कानून

मुहम्मद गुलाम और मैरित्सबर्ग नगर निगमके मामले में सर्वोच्च न्यायालयका फैसला (जिसे हम गतांकमें प्रकाशित कर चुके हैं) पढ़ने योग्य है। उससे प्रकट होता है कि इस उपनिवेशमें भारतीयोंको कितने कष्ट उठाने पड़ रहे हैं। उनका भाग्य परवाना अधिकारीकी मुट्ठीमें रहता है। सर्वोच्च न्यायालयको उसके मनमाने निर्णयोंका भंडाफोड़ करनेका अवसर सदा नहीं मिलता। हर पीड़ित भारतीय व्यापारीकी हैसियत ऐसी नहीं होती कि वह अपना मामला सर्वोच्च न्यायालयमें ले जा सके। इसलिए भारतीय व्यापारियोंको किन-किन मुसीबतोंका सामना करना पड़ता है और कितनी बातें सर्वसाधारणकी नजरोंसे ओझल रह जाती हैं; इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है। कुछ दिन पहले हमने एस्टकोर्टके एक मामलेकी तरफ पाठकोंका ध्यान दिलाया था जो अभीतक सर्वोच्च न्यायालय में नहीं पहुँचा है। भारतीय व्यापारी केवल यह एक काम कर सकते हैं कि जबतक उनके व्यापार-सम्बन्धी अधिकार मजबूत नींवपर नहीं स्थापित हो जाते तबतक वे अनवरत आन्दोलन करते रहें।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १६-७-१९१०

२३४. नेटालके परवाने

मैरित्सबर्गके परवानेके मामलेमें सर्वोच्च न्यायालयमें जो अपील की गई थी उससे प्रकट होता है कि [व्यापारी ] परवाना कानून बराबर कष्ट देता रहता है। उसके सम्बन्धमें भारतीय व्यापारी इस ओरसे बिल्कुल बेफिक्र होकर नहीं बैठ सकते । जब वे बार-बार सरकारको तंग करेंगे और उचित उपाय करेंगे तभी यह कानून खत्म होगा ।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १६-७-१९१०

१. मैरिस्सबर्गके खुदरा व्यापारी श्री मुहम्मद गुलामने अप्रैल १९०९ में अपना परवाना नया करानेके लिए दरखास्त दी थी। उनके परवानेकी फीस मंजूर कर ली गईं; लेकिन कोई निर्णय नहीं किया गया । वे दिसम्बर तक व्यापार करते रहे। दिसम्बर में नगरके परवाना-अधिकारीने उनकी दरखास्त नामंजूर कर दी। नगर परिषदने भी यह निर्णय बहाल रखा । तब मुहम्मद गुलामने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जो खर्चेके साथ मंजूर हो गई ।

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