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भेंट : 'वेजिटेरियन' के प्रतिनिधिसे-२

होने देनेको तैयार न थे । दुर्भाग्यसे मेरे लिए यह पहली ही समुद्र-यात्रा थी। इसलिए यह भी कोई नहीं जानता था कि मैं आरामसे समुद्र-यात्रा कर सकता हूँ या नहीं। इस तरह मैं लाचार हो गया। अपनी इच्छाके बहुत खिलाफ मुझे अपनी रवानगी स्थगित कर देनी पड़ी। मुझे तो लगा कि सारा बना-बनाया खेल बिगड़ जायेगा। मेरे भाई अपने एक मित्रके नाम एक चिट्ठी छोड़कर, जिसमें उनसे अनुरोध किया गया था कि समय आनेपर मुझे किरायेका पैसा दे दें, वापस चले गये। जुदाईका दृश्य वैसा ही था, जैसा ऊपर वर्णित है। अब मैं बम्बईमें अकेला रह गया। जहाजके किरायेके लिए पैसा नहीं था। वहाँ मुझे जितना ठहरना पड़ा, उसका एक-एक घंटा एक-एक वर्ष जैसा मालूम होता था। इसी बीच मैने सुना कि एक और भारतीय सज्जन' भी इंग्लैंड जा रहे हैं। यह तो मेरे लिए ईश्वर-प्रेरित समाचार था। मैंने सोचा, अब मुझे जाने दिया जायेगा। मैंने उस चिट्ठीका उपयोग किया, परन्तु भाईके मित्रने मुझे रुपया देनेसे इनकार कर दिया। मुझे चौबीस घंटोंके अन्दर तैयारी करनी थी। इसलिए मैं भयानक बेचैनीमें था। रुपयेके बिना ऐसा महसूस करता था मानो मैं पंखहीन पक्षी होऊँ। ऐसे समयमें एक मित्र मददको आ गये और उन्होंने मार्ग-व्यय दे दिया। उन्हें तो मैं हमेशा ही धन्यवाद दूंगा। मैंने टिकट खरीद लिया, अपने भाईको तार दे दिया और ४ सितंबर, १८८८ को मैं इंग्लैंडके लिए रवाना हो गया। इस तरहकी थी मेरी मुख्य कठिनाइयाँ, जो लगभग पांच माहतक चलती रहीं। वह समय भयानक चिन्ता और मनस्तापका था। कभी आशा और कमी निराशाके बीच, हमेशा अधिकसे-अधिक प्रयत्न करता हुआ, और इष्ट लक्ष्य दिखाने के लिए ईश्वरपर निर्भर होकर, मैं अपनी गाड़ी खींचता रहा।

[अंग्रेजीसे]
वेजिटेरियन, १३-६-१८९१

२०. भेंट : 'वेजिटेरियन' के प्रतिनिधिसे -२

इंग्लैंड पहुँचनेपर तो आपको मांसाहारकी समस्याका प्रत्यक्ष सामना करना पड़ा होगा; आपने उसको कैसे हल किया?

मैं बेमाँगे उपदेशोंके भारसे दब गया था। सदाशयी किन्तु अनजान मित्र अपनी सलाहें अनिच्छुक कानोंमें ठूसते रहे थे। उनमें से ज्यादातरने तो यह कहा था कि ठंडी आबहवामें तुम्हारा काम मांसके बिना नहीं चलेगा। तुम्हें क्षय-रोग हो जायेगा। श्री 'क' इंग्लैंड गये थे और वे अपनी मूर्खतापूर्ण वीरताके कारण क्षय-रोगके शिकार हो गये थे। दूसरे लोगोंने कहा कि तुम मांसके बिना तो रह सकते हो, मगर शराबके बिना घूम-फिर नहीं सकते। सर्दीसे जकड़ जाओगे । एकने तो यहाँतक उपदेश दे डाला

१. मजमूदार; देखिए " लंदन दैनन्दिनी", १२-११-१८८८ ।

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