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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
इस विवरण के अनुसार, उपनिवेशमें ९,३०९ यूरोपीय मतदाताओंके मुकाबले २५१ ब्रिटिश भारतीय मतदाता हैं। . . . और अगर श्री गांधीका कथन सही है तो इस नीतिके अमलके दौरान यह कभी सम्भव नहीं दिखलाई पड़ता कि भारतीय मत यूरोपीय मतोंको निगल जायेंगे। . . .सब गिरमिटिया भारतीय हो मताधिकारसे वंचित नहीं हैं, बल्कि सारेके-सारे ब्रिटिश भारतीय वंचित हैं। उनके सिर्फ एक बहुत ही छोटेसे वर्गको, जो अपनी बुद्धि तथा उद्योगशीलतासे खुशहाल बन गया है, मताधिकार प्राप्त है। . . .

विवरण बताता है कि वर्तमान कानूनके अन्तर्गत भी ब्रिटिश भारतीयोंको मताधिकार पाने में बहुत समय लगता है। कुल २५१ ब्रिटिश भारतीय मतदाताओंमें से केवल ६३ दस वर्षसे कम समयसे उपनिवेशमें रह रहे हैं। इनमें से अनेकोंने अपनी पूँजीसे कारोबार शुरू किया था। शेष १० वर्षसे ज्यादा और अधिकतर १४ वर्षसे ज्यादासे यहाँ निवास कर रहे हैं। जो लोग इस प्रश्नको हल हुआ देखना चाहते हैं उनके लिए ब्रिटिश भारतीय मतादाताओंकी सूचीके धन्धेवार विश्लेषण के नतीजे बहुत प्रोत्साहक होंगे। . . .
भारतमें ठीक इसी वर्गके लोग नगरपालिका तथा अन्य चुनावोंके सबसे महत्त्वपूर्ण अंग हैं। नेटालके भारतीय भारतमें प्राप्त सुविधाओं से ज्यादाका दावा नहीं कर सकते, और भारत में उन्हें किसी प्रकारका कोई मताधिकार प्राप्त नहीं है — यह दलील वस्तुस्थितिके अनुकूल नहीं है। . . . भारतमें मतदान द्वारा शासनका अस्तित्व जहाँतक है, वहाँतक अंग्रेज और भारतीय बराबर हैं। उसी तरह नगरपालिकाकी प्रान्तीय और सर्वोच्च परिषदोंमें भी भारतीयोंके हितोंका प्रतिनिधित्व सबल है। यह दलील भी कसौटीपर खरी नहीं उतरती कि भारतीय प्रातिनिधिक शासनके स्वरूप और उत्तरदायित्वसे अपरिचित हैं । शायद दुनिया में दूसरा कोई भी देश ऐसा नहीं है, जिसमें प्रातिनिधिक संस्थाएँ लोगों के जीवन में इतनी गहरी समाई हुई हैं। . . .

इस समय श्री चेम्बरलेन के सामने जो प्रश्न है, वह सैद्धान्तिक नहीं है। वह प्रश्न दलीलोंका नहीं, जातीय भावनाका है। सम्राज्ञीकी १८५८ की घोषणामें भारतीयोंको ब्रिटिश प्रजाके पूरे-पूरे अधिकार दिये है। वे इंग्लैंड में मत देते हैं और अंग्रेजोंकी बराबरीस ब्रिटिश संसदमें आसन ग्रहण करते हैं। परन्तु अनेक राष्ट्रोंके योगसे बने हुए एक विशाल साम्राज्यमें ये प्रश्न अनिवार्य हैं। और जैसे-जैसे जहाज बृहत्तर ब्रिटेनमें शामिल सभी आबादियों को एक-दूसरेके ज्यादा घनिष्ठ सम्पर्कमें लायेंगे, वैसे-वैसे ये प्रश्न ज्यादा उग्र रूपमें प्रकट होते जायेंगे। वो बातें साफ हैं। ऐसे प्रश्न उनकी उपेक्षा करने से हल नहीं होंगे और ब्रिटेनस्थित शक्तिशाली सरकार इन प्रश्नोंका न्यायपूर्ण समाधान करनेके लिए उत्तम न्यायालय सिद्ध हो सकती है। हम अपनी