विधेयकके अमलसे मुक्त किये जानेकी अर्जी देना और फिर अपनी अर्जीके खारिज हो जानेकी जोखिम भी उठाना किसी धनी भारतीय व्यापारीको प्रिय न होगा। यह समझमें आना कठिन है कि जिन देशोंमें अबतक संसदीय मताधिकारपर आधारित चुनावमूलक प्रातिनिधिक संस्थाएँ नहीं हैं उनसे आनेवाले यूरोपीयोंको उपनिवेशके सामान्य कानूनके अनुसार मत देनेका अधिकार क्यों मिले, जब कि वह उसी स्थितिके गैर-यूरोपीयोंको नहीं मिल सकता।
सरकारके विचारसे वर्तमान विधेयक प्रयोगात्मक है। दूसरे वाचनमें माननीय महान्यायवादीने कहा है : "अगर हमारे विश्वास और दृढ़ विश्वासके विपरीत विधेयक अपेक्षासे कम उतरा तो उपनिवेशमें कभी शान्ति नहीं रह पायेगी", आदि। इसलिए विधेयक निश्चयवाचक नहीं है। ऐसी हालत में जबतक वर्गगत कानूनका आश्रय लिये बिना सब साधनोंका प्रयोग करके उन्हें असफल नहीं पाया जाता (अर्थात्, यह मानकर कि भारतीय मतों द्वारा यूरोपीय मतोंको निगल जानेका खतरा उपस्थित है), तबतक वर्तमान विधेयक जैसा कोई विधेयक स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। प्रार्थियोंका निवेदन है कि यह सम्राज्ञीके केवल मुट्ठीभर प्रजाजनोंको हानि पहुँचानेवाला कानून नहीं, बल्कि ३० करोड़ वफादार प्रजाजनोंपर प्रहार करनेवाला है। प्रश्न यह नहीं है कि कितने और किन भारतीयोंको मताधिकार दिया जाये, बल्कि यह है कि भारतके बाहर और ब्रिटिश उपनिवेशोंमें तथा सह राज्योंमें भारतीयोंका दर्जा क्या होगा? क्या कोई सम्भ्रान्त भारतीय व्यापार या किसी अन्य उद्यमके लिए भारतके बाहर जा सकता है और वहाँ कोई मान-मर्यादा रखनेकी आशा कर सकता है? भारतीय प्रवासी दक्षिण आफ्रिकाके राजनीतिक भविष्यको ढालनेके इच्छुक नहीं हैं परन्तु वे इतना जरूर चाहते हैं कि उनपर बिना कोई अपमानजनक शर्त लादे उन्हें निर्विघ्न रूपसे शान्तिपूर्ण ढंगले अपने धन्धे करने दिये जायें। इसलिए प्रार्थी निवेदन करते