प्रातिनिधिक संस्थाओंके स्वरूप और उनकी जिम्मेदारियोंसे भारतीयोंके परिचयके बारेमें उसी लेखमें कहा गया है :
संसद सदस्य श्री श्वान इसी विषयपर कहते हैं :
इन परिस्थितियोंमें, भारतीय समाजके लिए अपने ऊपर चोट करनेके मंशासे बनाये गये इस विधेयकको समझना बहुत कठिन गुजर रहा है।
प्रार्थियोंका निवेदन है कि विधेयक अस्पष्ट और दुविधाजनक है। वह अवांछनीय है, और न तो यूरोपीयोंके लिए न्यायपूर्ण है, न भारतीयोंके लिए ही। इससे दोनों त्रिशंकुकी स्थिति में पड़ जाते हैं, जो भारतीयोंके लिए बहुत कष्टजनक है।
हम अत्यन्त आदरके साथ सदनका ध्यान खींचते हैं कि वर्तमान मतदाता सूचीके अनुसार भारतीय मतदाताओंकी संख्या ३८ यूरोपीय मतदाताओंके पीछे केवल एक है। इसके अलावा, भारतीय मतदाता अपने समाजके सबसे आदरणीय लोग हैं। वे इस उपनिवेशमें लम्बे समय से निवास कर रहे हैं और यहाँ उनके भारी हित दाँव पर चढ़े हैं।
तथापि, कहा जाता है कि वर्तमान मतदाता सूचीसे यह नहीं जाना जा सकता कि भविष्य में भारतीय मत कितना बड़ा रूप अख्तियार कर लेंगे। परन्तु भारतीय समाजके सामने गत दो वर्षोंसे मताधिकारके छीने जानेका खतरा उपस्थित है। इस बीच पहलेके अलावा किन्हीं भारतीयोंने मतदाता सूची में अपने नाम नहीं लिखाये। इससे, हमारे नम्र मतके अनुसार, इस तर्कका पूरा खण्डन हो जाता है।
सच तो यह है और हम व्यक्तिगत अनुभवसे कह सकते हैं कि, यद्यपि कानूनके अनुसार मताधिकार पानेके लिए बहुत कम सम्पत्तिकी आवश्यकता है, उपनिवेशमें उतनी भी योग्यता रखनेवाले भारतीयोंकी संख्या बहुत कम है। प्रार्थियोंका आदरपूर्वक निवेदन है कि विचाराधीन विधेयकपर अनेकानेक आपत्तियाँ की जा सकती हैं। वह अत्यन्त द्वेषजनक रूपमें रंग-भेद दाखिल करने वाला है क्योंकि, जिन दूसरे देशों में चुनावमूलक प्रातिनिधिक संस्थाएँ नहीं हैं उनके
- ↑ पादरी के विशिष्ट क्षेत्रोंकी परिषदोंका कानून।