प्रार्थी यह मानकर चलते हैं कि विधेयक यदि पूर्णतः नहीं तो मुख्यतः भारतीय समाजसे सम्बन्ध रखता है क्योंकि १८९४ के जिस २५वें कानूनका उद्देश्य भारतीयोंका मताधिकार छीनना था, उसे यह विधेयक रद करता है, और उसका स्थान लेता है।
जब १८९४ का २५वाँ कानून विचाराधीन था उस समय इसी विषयपर भारतीय समाजकी ओरसे सदनके सामने एक प्रार्थनापत्र[१] पेश किया गया था। उसमें दावा किया गया था कि भारतमें भारतीयोंकी चुनावमूलक प्रातिनिधिक संस्थाएँ अवश्य हैं। प्रस्तुत विधेयक उन सब लोगोंको मताधिकारसे वंचित करता है जो मूलत: यूरोपीय वंशके नहीं हैं और ऐसे देशोंसे आये हैं, जहाँ चुनावमूलक प्रातिनिधिक संस्थाएँ नहीं हैं।
इसलिए, विधेयकका विरोध करनेमें प्रार्थियोंकी स्थिति बड़ी ही अटपटी हो गई है।
फिर भी यह देखकर कि विधेयकका निहित उद्देश्य भारतीय मताधिकारके सम्बन्धमें व्यवस्था करना ही है, प्रार्थी उसके बारेमें अपने विचार व्यक्त करना कर्त्तव्य समझते हैं। भारतमें चुनावमूलक प्रातिनिधिक संस्थाएँ हैं, उनकी इस मान्यताका आधार क्या है — प्रार्थी यह बता देना भी अपना कर्तव्य समझते हैं।
२८ मार्च, १८९२ को ब्रिटिश कामन्स सभामें भारतीय विधान परिषद कानून (१८६१) का दूसरा वाचन प्रारम्भ करते हुए तत्कालीन भारत उप मंत्रीने कहा था :[२]
'संशोधन कानून प्रत्येक विधान परिषद में नामजद सदस्योंकी संख्या तो बढ़ाता ही है, साथ ही हर वर्ष वित्तीय विवरण पर बहस करने और 'स्पष्टीकरणकी मांग करने' का मी अधिकार देता है। वह चुनावके सिद्धान्तका समावेश करता है। विधान परिषदोंका स्वरूप शुरू से ही प्रातिनिधिक रहा है। दूसरा वाचन पेश करनेवाले माननीय उप-मन्त्रीने नामजद सदस्योंकी संख्या बढ़ानेके बारेमें कहा था :
परन्तु, प्रार्थी निवेदन करना चाहते हैं कि, अब इन विधान परिषदोंको 'मताधिकारपर आधारित' प्रातिनिधिक स्वरूप प्राप्त है।
संसद सदस्य श्री श्वानने विधेयकमें इस आशयका एक संशोधन पेश किया था कि 'विधान परिषदोंका कोई ऐसा सुधार सन्तोषजनक न होगा, जिसमें चुनावके सिद्धांतका समावेश न हो।' उसका उत्तर देते हुए श्री कर्जनने कहा था :