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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


'जी° डब्ल्यू° डब्ल्यू°' ने पुस्तिकाकी आलोचना करते हुए मेरे प्रति व्यक्तिगत रूपमें जो न्याय दिखाया है उसके लिए मैं उन्हें धन्यवाद देता हूँ। काश! उन्होंने उस 'अपील' की विषय-सामग्रीके बारेमें भी वैसा ही न्याय किया होता! मेरा खयाल है कि अगर उन्होंने उसे निष्पक्ष भावसे पढ़ा होता तो उन्हें उसमें प्रकट किये गये विचारोंसे मत-भेदका कोई कारण न मिलता। मैंने उस विषयकी विवेचना एक ऐसे दृष्टिकोणसे की है जिससे यूरोपीय उपनिवेशियोंको भारतीयोंके सामने निःसंकोच मैत्रीका हाथ बढ़ानेकी प्रेरणा मिलेगी और ऐसा करनेमें उन्हें अपनी वर्तमान स्थितिसे बगल बचाकर हटना भी नहीं पड़ेगा। मैं अब भी कहता हूँ कि भयका जरा भी कारण नहीं है। और अगर यूरोपीय उपनिवेशी सिर्फ इतना ही करें कि आन्दोलन खत्म हो जाये और पहलेकी स्थितिको फिरसे कायम करना मंजूर कर लिया जाये, तो वे देखेंगे कि भारतीयोंके मत उनके मतोंको निगलते नहीं। मेरा यह भी निवेदन है कि अगर कभी ऐसा संयोग आ ही जाये तो उसकी व्यवस्था प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपमें रंग-भेदको दाखिल किये बिना ही पहलेसे की जा सकती है। मताधिकारके लिए शिक्षाकी एक सच्ची और उचित कसौटीसे भारतीय मतोंके यूरोपीय मतोंको निगल जानेका खतरा (अगर वह जरा भी हो तो) शायद हमेशाके लिए निर्मूल हो जायेगा। अगर कोई यूरोपीय मतदाता नितान्त अवांछनीय हों तो उन्हें भी इस उपाय द्वारा मतदाता सूची से बाहर रखा जा सकता है।

'जी° डब्ल्यू° डब्ल्यू°' प्रत्यक्ष मतोंकी तुलनात्मक संख्याके आधारपर पेश की गई दलीलोंपर आपत्ति करते हैं और इस ओर ध्यान खींचते हैं कि 'अगले वर्षकी मतदाता-सूची में क्या हो सकता है।' मैं नम्रतापूर्वक उनका ध्यान इस वस्तु-स्थितिकी ओर आकर्षित करता हूँ कि यद्यपि पिछले वर्ष और उसके भी पिछले वर्ष भारतीयोंको मतदाता सूचीपर छा जानेका मौका हर तरहसे हासिल था, और अब जो मताधिकार कानून रद किया जानेवाला है उसके नतीजेकी आशंकासे उन्हें हर तरहका प्रलोभन भी था, फिर भी भारतीय मतदाताओंकी संख्या में बढ़ती नहीं हुई। इसका कारण या तो उनकी असाधारण उदासीनता या उनमें मतदाता बननेकी योग्यताओंका अभाव ही हो सकता है। परन्तु ऐसी उदासीनता सम्भव नहीं थी, क्योंकि 'आन्दोलन' तो गत दो वर्षोंसे चल रहा है।

तथापि, समय और स्थानकी कमीके कारण मैं 'जी° डब्ल्यू° डब्ल्यू°' के पत्रकी विस्तारके साथ मीमांसा करना नहीं चाहता। मैं उतनी ही जानकारी भर दे दूंगा, जितनी उन्होंने माँगी है और फिर आगामी अधिवेशनमें पेश किये जानेवाले विधेयकपर उसकी दृष्टिसे विचार करूँगा।

श्री कर्जनने, जो उस समय उप-भारत मन्त्री थे, 'भारतीय विधान परिषद कानून (१८६१) संशोधन विधेयक' का दूसरा वाचन पेश करते हुए दूसरी बातोंके साथ-साथ कहा था :

मेरा कर्त्तव्य है कि में विधेयकके उद्देश्यको सदन के सामने स्पष्ट कर दूं। उद्देश्य यह है कि भारतीय शासनके आधार और भारत सरकारके कार्यक्षेत्रको