जिस 'गजट' में नोंदवेनी-सम्बन्धी नियम थे, उसके प्रकाशित होनेके दूसरे ही दिन, प्रार्थियोंने, जुलूलैंडके गवर्नर महोदयको एक प्रार्थनापत्र भेजा था। उसमें उनसे प्रार्थनाकी गई थी कि नियमोंमें ऐसा परिवर्तन या संशोधन कर दिया जाये, जिससे उनमें निहित रंग-भेद दूर हो जाये।
उपर्युक्त प्रार्थनापत्रके[१] उत्तरमें, जिसकी नकल इसके साथ नत्थी है, प्रार्थियोंको सूचित किया गया कि वे नियम "वही हैं, जो कि पूर्वगामी गवर्नर महोदयने २८ सितम्बर, १८९१ को घोषित एशोवे बस्तीमें लागू किये थे।" इसपर ४ मार्च, १८९६ को इस आशयका निवेदन किया गया कि ब्रिटिश भारतीयोंके सम्बन्धमें दोनों स्थानोंके नियमोंमें परिवर्तन या संशोधन किया जाये।
५ मार्च, १८९६ को इसका उत्तर मिला। आशय यह था कि गवर्नर महोदय इस सुझावके अनुसार कार्रवाई करना उचित नहीं समझते। प्रार्थियोंका दृढ़ विश्वास है कि भारतीय समाजपर बरपा किया गया अन्याय इतना स्पष्ट है कि उसके निवारणके लिए उसे सम्राज्ञी-सरकारकी दृष्टिमें ला देना ही काफी होगा। ऐसा द्वेषजनक और, हम आदरपूर्वक कहते हैं, अनावश्यक भेदभाव तो स्वशासित उपनिवेशोंमें भी होने नहीं दिया जाता। फिर, सम्राज्ञीके शासनाधीन एक उपनिवेशमें तो इसकी और भी इजाजत नहीं होनी चाहिए।
जुलूलैंडमें आपके अनेक प्रार्थियोंकी जमीन-जायदाद है। १८८९ में, जब मेलमॉथ नामकी बस्तीकी जमीन बेची गई थी, तब भारतीय समाजने वहाँ लगभग २,००० पौंडकी जमीन खरीदी थी।
हम आदरके साथ निवेदन करते हैं कि जुलूलैंडमें भारतीयोंको स्वतन्त्रतापूर्वक जमीन खरीदने देना बिलकुल जरूरी है। भले इसका मंशा सिर्फ इतना ही क्यों न हो कि उनकी जो २,००० पौंडकी रकम वहाँ लगी है, उसका वे फायदा उठा सकें।
नेटालका सरकारी मुखपत्र[२] साधारणतः भारतीयोंकी महत्वाकांक्षाओंका विरोधी रहता है। परन्तु इस अन्यायको उसने भी इतना गम्भीर समझा है कि वह जुलूलैंडके गवर्नरको भेजे गये प्रार्थनापत्रपर बहुत अनुकूल विचार व्यक्त किये बिना नहीं रह सका। वे विचार इतने उपयुक्त हैं कि प्रार्थी उन्हें नीचे उद्धृत करनेकी अनुमति लेते हैं :