मैंने यह दावा कभी नहीं किया — और न अब करता हूँ — कि मताधिकार भारतमें उतना ही व्यापक है जितना यहाँ है। यह कहना भी व्यर्थ होगा कि भारतकी विधान परिषदें उतनी ही प्रातिनिधिक हैं, जितनी कि यहाँकी विधानसभा है। तथापि, जिस बात का मैं दावा करता हूँ वह यह है कि भारतमें मताधिकारकी मर्यादाएँ कुछ भी हों, वह बिना रंग-भेदके सबको प्राप्त है। इस बातका प्रतिवाद नहीं किया जा सकता कि प्रातिनिधिक शासनको समझनेकी भारतीयोंकी योग्यता स्वीकारकी जा चुकी है। श्री फ्रांसिसका कथन है कि मताधिकारकी योग्यता भारतमें वही नहीं मानी जाती जो नेटालमें मानी जाती है। इस बातसे तो कभी इनकार किया ही नहीं गया है। इस तरहकी कसौटीके अनुसार तो यूरोपसे आनेवाले लोगोंको भी मताधिकार नहीं मिल सकेगा, क्योंकि विभिन्न यूरोपीय राज्यों में मताधिकारकी योग्यता ठीक वही नहीं है जो यहाँ है।
इस सप्ताहकी डाकसे इस बातका सबसे ताजा प्रमाण प्राप्त हुआ है, कि भारतीय इस विषयकी एकमात्र सच्ची कसौटी पर, जो यह है कि वे प्रतिनिधित्वका सिद्धान्त समझते हैं या नहीं, कभी कम नहीं उतरे हैं। मैं 'टाइम्स' में प्रकाशित 'भारतीय मामले' शीर्षक लेखसे निम्नलिखित उद्धरण दे रहा हूँ :
जैसा कि सभीको मालूम है, यह अनुच्छेद एक ऐसे इतिहासज्ञ[१] और भारतके अफसरकी कलम से निकला है, जिसने भारतमें तीस वर्षसे अधिक सेवा की है। कुछ लोगोंको मताधिकार न दिया जाना अपने आपमें बड़ी निरर्थक चीज मालूम हो सकती
- ↑ सर विलियम विल्सन हंटर।