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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय



(२) जब मैं ट्रान्सवालकी सीमापर पहुँचा तब एक वर्दीधारी यूरोपीय मेरे पास आया। उसके साथ एक अन्य व्यक्ति भी था। उसने मुझसे परवाना दिखाने को कहा। मैंने जवाब दिया कि मेरे पास परवाना नहीं है और इसके पहले मुझसे कभी माँगा भी नहीं गया।

(३) इसपर उसने अशिष्टताके साथ मुझसे कहा कि तुम्हें परवाना लेना होगा।

(४) मैंने उससे ले आनेको कहा और उसका पैसा देनेकी तैयारी दिखाई।

(५) तब उसने बहुत अशिष्टतासे मुझे अपने साथ परवाना अधिकारीके पास चलनको कहा। मुझे धमकी भी दी कि मानोगे नहीं तो गाड़ीसे बाहर घसीट लूँगा।

(६) अधिक संकटको टालनेके लिए में उतर पड़ा। उसने मुझे दो मील पैदल चलाया और खुद घोड़ेपर गया।

(७) दफ्तर पहुँचने पर मुझे परवाना लेनेके लिए बाध्य नहीं किया गया। सिर्फ इतना पूछा गया कि मैं कहाँ जा रहा हूँ। फिर मुझसे चले जानेको कह दिया गया।

(८) जो आदमी घोड़ेपर सवार था और जो मेरे साथ गया था वह भी मुझे छोड़कर चला गया। मुझे दो मील वापस पैदल जाना पड़ा। वहाँ जाकर मैंने देखा कि घोड़ागाड़ी भी चली गई है।

(९) यद्यपि मैंने चार्ल्सटाउन तक का किराया दे दिया था, मुझे दो मीलसे ज्यादा पैदल चलकर वहाँ जाना पड़ा।

(१०) मुझे व्यक्तिगत जानकारी है कि ऐसी ही हालतोंमें अन्य अनेक भारतीयोंको ऐसा ही कष्ट और अपमान सहना पड़ा है।

(११) कुछ दिन पूर्व, मुझे डेलागोआ-वे से दो मित्रोंके साथ प्रिटोरिया जाना पड़ा था।

(१२) ट्रान्सवाल में यात्रा कर सकें, इसके लिए हम सबको, ठीक देशी लोगोंके समान, परवानोंसे लैस हो जानेके लिए बाध्य किया गया।

हाजी मुहम्मद हाजी दादा

आज २४ अप्रैल, १८९५ को प्रिटोरियामें मेरे सामने हलफपर बयान दिया गया।

एनवारालोहे
बी° रासक