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खुली चिट्ठी

नहीं मिला। सार्वजनिक स्नानगृह भी भारतीयोंको उपलब्ध नहीं होते, फिर वे भारतीय कोई भी क्यों न हों।

विभिन्न जायदादोंमें गिरमिटिया भारतीयोंके साथ किये जानेवाले दुर्व्यवहारकी जो रिपोर्टें मुझे मिली हैं उनके दसवें हिस्सेपर भी अगर मैं विश्वास करूँ, तो वे उन जायदादोंके मालिकोंकी मनुष्यता और गिरमिटियोंके संरक्षक द्वारा की जानेवाली उनकी देखभालके खिलाफ भयानक आरोप स्वरूप होंगी। परन्तु इस विषयका मुझे बहुत सीमित अनुभव है, इसलिए इसपर मैं अधिक विचार व्यक्त नहीं करूँगा।

आवारा-कानून गैर-जरूरी तौरपर उत्पीड़क है। अकसर वह प्रतिष्ठित भारतीयों को बड़ी अड़चन में डाल देता है।

इस सबमें उन अफवाहोंको जोड़ लीजिए जो हवामें फैली हुई हैं। अफवाहोंका सार यह है कि भारतीयोंको पृथक् बस्तियोंमें रहनेके लिए समझाया या बाध्य किया जाये। हो सकता है कि यह सिर्फ इरादा ही हो। फिर भी, भारतीयोंके खिलाफ यूरोपीयोंकी भावनाओंका परिचय तो इससे मिलता ही है। मेरी प्रार्थना है, आप कल्पना करके देखें कि अगर ऐसे सब इरादोंको पूरा करना सम्भव हो तो नेटालमें भारतीयोंकी हालत क्या होगी।

अब, क्या यह व्यवहार ब्रिटिश न्याय-परम्परा, या नीति या ईसाइयतके अनुरूप है? आपकी इजाजतसे मैं मेकॉलेके विचारोंका एक अंश पेश करता हूँ और इसका निर्णय आपपर छोड़ता हूँ कि क्या भारतीयोंके प्रति आज जो व्यवहार हो रहा है, उसे वह पसन्द करता। भारतीयोंके प्रति व्यवहारके विषयमें भाषण करते हुए उसने निम्नलिखित भावनाएँ व्यक्त की थीं:

मैं एक सम्पूर्ण समाजको अफीम खिलानेकी, अपने हाथोंमें ईश्वर द्वारा सौंपे हुए एक महान राष्ट्रको सिर्फ इसलिए मदहोश और पंगु बना देनेकी सम्मति कभी न दूंगा कि वह हमारे नियन्त्रणमें रहनेके अधिक उपयुक्त बन जाये। उस सत्ताका क्या मूल्य, जिसकी नींव दुर्गुणोंपर, अज्ञानपर और दु:ख-दैन्यपर रखी गई हो; जिसका संरक्षण हम उन अत्यन्त पवित्र कर्त्तव्योंको भंग करके ही कर सकते हैं, जिनके लिए हम शासकोंकी हैसियतसे शासितोंके प्रति जिम्मेदार हैं; और जिन कर्त्तव्योंके रूपमें साधारणसे अधिक राजनीतिक स्वतन्त्रता और बौद्धिक प्रकाशके धनी होनेके नाते हमें उस जातिका ऋण चुकाना है, जो तीन हजार वर्षके निरंकुश शासन और पुरोहितोंकी धूर्ततासे अध:पतित हो गई है? अगर हम मानव-जातिके किसी अंगको अपने ही बराबर स्वतन्त्रता और सभ्यता प्रदान करने को तैयार नहीं हैं, तो हम व्यर्थ ही स्वतन्त्र हैं, व्यर्थ हो सभ्य हैं।

इसके अलावा, मिल, बर्क, ब्राइट और फॉसेट[१] जैसे लेखक भी भारतीयोंके प्रति इस उपनिवेशमें होनेवाले व्यवहारको बरदाश्त नहीं कर सकते थे। यह बतानेके लिए इनकी ओर संकेत कर देना-भर काफी होगा।

 
  1. हेनरी फॉसेट (१८३३-१८८४)। कैम्ब्रिजमें राजनीतिक अर्थ-व्यवस्थाके प्राध्यापक और राजनीतिज्ञ।

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