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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

वे अपेक्षाकृत कम मुनाफेसे सन्तुष्ट हो जाते हैं, क्योंकि वे व्यर्थ बहुत बड़ा ठाठ-बाट नहीं जमाते। सारांश यह कि वे अपने ही खरे पसीनेकी रोटी कमाते हैं। ये सब बातें उनके उपनिवेशमें रहनेपर आपत्ति के रूपमें कैसे पेश की जा सकती हैं, यह समझना कठिन है। बेशक, वे जुआ नहीं खेलते, साधारणतः तम्बाकू नहीं पीते, छोटी-छोटी असुविधाओंको बरदाश्त कर सकते हैं और रोजाना आठ घंटेसे ज्यादा काम कर सकते हैं। अगर उनसे अपेक्षा की जाये और क्या यह वांछनीय होगा कि वे इन सद्-गुणोंको तिलांजलि दे दें और जिन दुर्गुणोंसे ग्रस्त होकर पश्चिमी राष्ट्र कराह रहे हैं, उन्हें पकड़ लें, ताकि उन्हें बिना छेड़छाड़ के उपनिवेश में रहने दिया जाये?

भारतीय व्यापारियों और मजदूरों, दोनोंके बारेमें जो सामान्य आपत्ति की जाती है उसपर भी विचार कर लेना बहुत अच्छा होगा। आपत्ति है, उनकी अस्वच्छ आदतोंके सम्बन्ध में। मुझे भारी मर्मवेदनाके साथ यह आरोप आंशिक रूपमें मंजूर करना ही होगा। उनकी अस्वच्छ आदतों के खिलाफ जो कुछ कहा जाता है बेशक, उसके बहुत से अंशका आधार तो सिर्फ ईर्ष्या-द्वेष है, फिर भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इस विषय में वे पूरे-पूरे वैसे नहीं हैं, जैसे होनेकी उनसे अपेक्षा की जा सकती है। परन्तु उन्हें उपनिवेश से निकाल देनेका कारण तो इसे कदापि नहीं बनाया जा सकता। इस विषय में उनसे सुधारकी आशा ही न की जा सकती हो, सो बात नहीं है। मेरा निवेदन है कि सफाई-कानून के दृढ़, तथापि न्याय और दयापूर्ण प्रयोगसे इस बुराईका सफल मुकाबला और मूलोच्छेद भी हो सकता है। फिर यह बुराई इतनी बड़ी भी तो नहीं है कि उसके खिलाफ किसी कठोर कार्रवाईकी जरूरत हो। आप देखेंगे कि अगर गिरमिटिया भारतीयोंको छोड़ दिया जाये तो शेष भारतीयोंकी व्यक्तिगत आदतें गन्दी नहीं हैं। गिरमिटिया तो इतने गरीब हैं कि वे अपनी व्यक्तिगत सफाईपर ध्यान दे ही नहीं सकते। मैं अपने अनुभव से यह कहने की इजाजत चाहता हूँ कि व्यापारी सम्प्रदाय के लोग हफ्तेमें कमसे कम एक बार स्नान करनेके लिए, और जब-जब नमाज पढ़ें, कुहनियों तक हाथ, मुँह और पैर धोनेके लिए धर्मके द्वारा बाध्य हैं। उनके लिए दिनमें चार बार[१] नमाज पढ़नेका नियम है और ऐसे बहुत कम लोग हैं जो दिनमें कमसे कम दो बार नमाज नहीं पढ़ते।

मुझे आशा है, यह तो फौरन मान लिया जायेगा कि जो दुर्गुण किसी दलको पूरे समाज के लिए खतरनाक बना देते हैं उनसे वे गैर-मामूली तौरपर बरी हैं। संवैधानिक सत्ताको शिरोधार्य करने में वे किसीसे पीछे नहीं हैं। राजनीतिक दृष्टिसे वे कदापि खतरनाक नहीं हैं। और कलकत्ता तथा मद्रास में अरकाटियोंने बिना जाने कभी कभी जिन गुण्डोंको छाँट लिया है उन्हें छोड़कर बाकी लोग भयानक अपराधोंसे मुक्त हैं। खेद है कि मैं फौजदारी अदालतोंके आँकड़ोंकी तुलना करने में समर्थ नहीं हूँ, इसलिए इस विषय में अधिक नहीं कह सकता। परन्तु मैं 'नेटाल आलमैनेक' से यह उद्धरण देनेकी इजाजत चाहता हूँ: "भारतीय आबादी के बारेमें कहना ही होगा कि समग्रतः वह व्यवस्थाप्रिय और कानूनका पालन करनेवाली है।"

 
  1. १. पाँच बार।