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तेरह

दी जायेगी। विभिन्न वर्गकी सामग्रीको विभिन्न ग्रंथमाकाओंमें प्रकाशित करनेके बदले इस व्यवस्थाकों पसन्द करनेका मुख्य कारण यह है कि वैसा पृथक्करण कृत्रिम होता। गांधीजीने अकसर किसी एक ही विषयकी चर्चा एक अवधि विशेषके अपने लेखों, भाषणों और पत्रों — सबमें की है। वे जीवनकों समूचे रूपमें देखते थे, अलग-अलग विभागोंमें नहीं। अपने विचार प्रकट करनेका जो भी माध्यम — लेख, भाषण या पत्र — उन्होंने चुना, उसके कारण उनके विचारोंमें कोई अन्तर नहीं पड़ा। अगर ये सब एक ही पुस्तकमे एक-दूसरेंके साथ ठीक तिथि-क्रमसे रखे जायें तो पाठकोंकों अधिक पूर्ण चित्र मिलेगा कि गांधीजी कैसे काम करते थे और कैसे विभिन्न प्रशनोको, जैसे-जैसे वे उठते, निबटाया करते थे। ऐसा होनेपर ये पुस्तकें गांधीजीके उस मानसके वैभवको प्रकट करेंगी, जो भारी सार्वजनिक महत्त्वके प्रश्नोका निर्वाह करते हुए भी व्यक्तियोंकी गहरी निजी समस्याओंमें कम निरत नहीं रहता था। उन्हें एक स्वतन्त्र ग्रंथमालामें प्रकाशित कर देनेकी अपेक्षा व्यक्तिगत पत्रोंको सार्वजनिक प्रश्नोंसे सम्बन्ध रखनेवाली सामग्रीके बीच रखनेसे गांधीजीके व्यक्तित्वकी छवि अधिक सच्ची और पूर्ण रूपमें प्राप्त होती है।

ग्रंथमालाका उद्देश्य यह है कि जहाँतक सम्भव हो, गांधीजीके मूल शब्द ही प्रकाशित किये जायें। इसलिए उनके भाषणों, मुलाकातों और चर्चाओंकी वे रिपोर्टें छोड़ दी गई हैं, जो प्रामाणिक नहीं मालूम हुईं। उनके कथनोंकी परोक्ष रिपोर्टें भी शामिल नहीं की गईं। तथापि, जहाँतक भाषणोंका सम्बन्ध है, उनकी ऐसी रिपोर्ट ले ली गई हैं, जिनकी प्रामाणिकता सन्देहके परे थी। यदि किसी भाषणकी प्रत्यक्ष रिपोर्ट छापी ही नहीं गई या यदि किसीसे ऐसी जानकारी मिलती है जो दूसरे रूपमें उपलब्ध है ही नहीं, तो उसकी भी परोक्ष रिपोर्ट शामिल कर ली गई है। गांधीजीने जो कागजात या पत्र खालिस तौरपर अपने पेशेके सिलसिले में बैरिस्टरकी हैसियत से लिखे थे और जो कागज-पत्र बिलकुल नित्य जीवनके ढरके थे तथा जिनका जीवन-चरित-सम्बन्धी कोई महत्त्व नहीं था, उन्हें भी छोड़ दिया गया है।

इस आयोजनका आरम्भ फरवरी १९५६ में किया गया था। इसके सूत्रपातका श्रेय श्री पुरुषोत्तम मंगेश लाडको है, जो उस समय भारत सरकारके सूचना और प्रसारण मंत्रालयके सचिव थे और जिन्होंने, मार्च १९५७ में अपनी असामयिक मृत्युके पूर्व, इस कार्यकी नींव रखने में मदद की थी।

ग्रंथमालाका नियन्त्रण और निर्देशन एक परामर्श-मण्डलके अधीन है, जिसके प्रथम सदस्य थे: श्री मोरारजी र॰ देसाई (अध्यक्ष), श्री काकासाहब कालेलकर, श्री देवदास गांधी, श्री प्यारेलाल नैयर, श्री मगनभाई प्रागजी देसाई, श्री जी॰ रामचन्द्रन, श्री श्रीमन्नारायण, श्री जीवनजी डा॰ देसाई और श्री पुरुषोत्तम मंगेश लाड।

सन् १९५७ में श्री देवदास गांधी और श्री पुरुषोत्तम मंगेश लाडका देहान्त हो गया। सन् १९५८ में श्री रं॰ रा॰ दिवाकर परामर्श-मण्डलमें शामिल हुए। सन १९६६ में श्री जीवनजी डा॰ देसाईके स्थानपर श्री ठाकोरभाई देसाई नियुक्त किये गये। सन् १९६७ में पुनर्गठित परामर्श-मण्डलके सदस्य हैं: श्री मोरारजी र॰ देसाई