पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 1.pdf/१७३

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२९
प्राणयुक्त आहारका एक प्रयोग

सितम्बर १--सुबह उठा तो बिलकुल थका हुआ था। कलके ही समान नाश्ता और ब्यालू की। बहुत कमजोरी मालूम होती है। दाँत दुखते हैं। प्रयोग छोड़ देना होगा। बेकरका जन्मदिन था, इसलिए उसके साथ चाय पी। चायके बाद अच्छा लगा।

सितम्बर २ --सुबह ताजगी लिये उठा (कल शामकी चायका असर) । पुराना खाना खाया ( दलिया, रोटी, मक्खन, मुरब्बा और कोको)। बहुत ही अच्छा महसूस किया।

इस तरह प्राणयुक्त आहारका प्रयोग समाप्त हुआ।

अधिक अनुकूल परिस्थितियोंमें शायद यह असफल न हुआ होता। किसी भोजना-लयमें, जहाँ हर बात अपने वशकी नहीं होती, जहाँ आहारमें बार-बार फर्क करना संभव नहीं होता, आहार-सम्बन्धी प्रयोग सफलतापूर्वक नहीं किये जा सकते। इसके अलावा, ताजे फलोंमें मुझे सिर्फ संतरे प्राप्य थे। उस समय ट्रान्सवालमें और कोई फल नहीं मिलते थे।

यह तो बड़े अफसोसकी बात है कि यद्यपि ट्रान्सवालकी भूमि बहुत उपजाऊ है, फिर भी उसमें फलोंकी उपजकी ओर बहुत उपेक्षा बरती गई है। फिर, मुझे दूध तो मिल ही नहीं सका। वह यहाँ बहुत महँगा है। दक्षिण आफ्रिकामें आम तौरपर लोग डिब्बेके दूधका उपयोग करते हैं। इसलिए यह तो मानना ही होगा कि प्राणयुक्त आहारका महत्त्व सिद्ध करने की दृष्टिसे यह प्रयोग बिलकुल निरर्थक है। प्रतिकूल परिस्थितियोंमें ११ दिनके प्रयोगके बाद प्राणयुक्त आहारके बारे में कोई अभिप्राय देने बैठ जाना दुराग्रहमात्र होगा। बीस वर्ष और उससे ज्यादा अवधिसे पके हुए भोजनके अभ्यस्त पेटसे एकाएक कच्चा भोजन हजम कर लेने की अपेक्षा करना बहुत अधिक है और फिर भी, मैं समझता हूँ, इस प्रयोगका अपना महत्त्व तो है ही। यह उन लोगोंके लिए मार्गदर्शक जैसा हो सकता है, जो इन प्रयोगोंसे किसी प्रकार आकर्षित होकर ऐसे प्रयोग करना शुरू तो कर दें, परन्तु जिनके पास प्रयोगोंको सफल करनेके लिए न तो सामर्थ्य हो, न साधन, न अनुकूल परिस्थितियाँ, न धैर्य और न आवश्यक ज्ञान ही। मैं मंजूर करता हूँ कि मुझमें उपर्युक्त योग्यताओंमें से कोई भी नहीं थी। स्पष्ट है कि धैर्यके अभावमें मैंने अपना आहार बदल दिया। नाश्ता तो शुरूसे ही प्राणयुक्त पदार्थोंका था, और मुश्किलसे चार-पांच दिन बीते होंगे कि ब्यालू भी उन्हीं वस्तुओंकी होने लगी। सचमुच प्राणयुक्त आहारके सिद्धान्तोंका मेरा ज्ञान बहुत छिछला था। श्री हिल्सकी एक छोटी-सी पुस्तक और 'वेजिटेरियन' में हालमें प्रकाशित उनके एक-दो लेख ही मेरे तत्सम्बन्धी ज्ञानका आधार थे। इसलिए मेरा विश्वास है, आवश्यक तैयारी और योग्यता न रखनेवाला कोई भी व्यक्ति असफल होगा ही। वह खुद नुकसान उठायेगा और जिस हेतुको परखने और आगे बढ़ानेका प्रयत्न कर रहा है, उसको भी हानि पहुँचायेगा।

और, आखिरकार, क्या एक साधारण अन्नाहारीके--ऐसे अन्नाहारीके, जो अपने आहारसे संतुष्ट है--इस तरहके प्रयोगोंमें पड़नेसे कोई लाभ है? क्या यह अच्छा

१-९