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सम्पत्ति-शास्त्र।

यदि किफायत हो सकती हो, और किसी देश या प्रान्त से मैंगया जाय । इंगलैंड को देखिए, उसकी आबादी बहुत बढ़ गई है । पर वहांधाले परती ज़मीन जीत कर खुदही अधिक अनाज पैदा करने का यत्न नहीं करते, और यदि करें भी ता उनको विशेष लाभ न हो, क्योंकि वह सबके लिए काफी अनाज उत्पन्न करने भर को ज़मीनही नहीं है । अतपच ये लोग अपने देश के अनाज की कमी को रूस, अमेरिका और हिन्दुस्तान से अनाज मँगा कर पूरा करते हैं।

जब किसी देश में अनाज को माँग अधिक होती है और दूसरे देशों से बह नहीं मैगाया जाता, अथवा मंगाने से पड़ता नहीं पड़ता, तब वह ज़रूर महँग हो जाता है । इस दशा में अनाज के रूप में सम्पत्ति की वृद्धि के लिए परती ज़मीन-चाहे वह बहुतही बुरी क्यों न हो-जोतनाहीं पड़ती है। पैसा करने से बहुत मेहनत करनी पड़ती है और पूजो भी अधिक लगानी पड़ती है। क्योंकि यदि ऐसा न किया जाय तो, ज़मीन अच्छी न होने के कारण, बहुत ही कम पैदावार हो।

इस विवंचन से मालूम हुआ कि खेती की जमीन का रकबा बढ़ाने से कब और किस तरह अधिक सम्पत्ति उत्पन्न हो सकती है । इससे ये सिद्धान्त निकले:-

(१) आवादी बढ़ने से अनाज का पर्च बढ़ जाता है ।

(२) अनाज का खर्च बढ़ जाने से पड़ी हुई दुरी ज़मीन में भी खेती होने लगती है।

(३) इस तरह की जमीन में खेती होने से अधिक मेहनत करने और अधिक पूजी लगाने की जरूरत होती है।

(४) फल यह होता है कि खेती की पैदावार महँगी हो जाती है।

तीसरा परिच्छेद
मेहनत की वृद्धि ।

सम्पन्ति की वृद्धि के लिए मेहनत की भी वृद्धि दरकार होती है। सम्पति की उत्पत्ति के तीन कारणों में से मेहनत भी एक कारण है। जहां कार्य-कारण