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सम्पत्ति-शास्त्र।

इलसे एक और सिद्धान्त निकलता है। बह यह है कि ऐशो इशरत की चीज़ों, अर्थात् विलास-द्रयों में सम्पत्ति खर्च करने से मज़दूरों का पोषण नहीं होता । प्रायः सारे विलास-द्रव्य ऐसे हैं जिनका लेना अनुत्पादक व्यय करना है। इत्र. फुलेल, और prer. पट्टा, जरी आदि ऐसी चीजें हैं जिनके ध्यवहार से अधिक सम्पत्ति नहीं उत्पन्न होती । ऐसी चीज़ लेने से मजदूरों का पोपा हाना ना दूर रहा, उन्हें उलटो हानि पहुँचती है। क्योंकि इन चीज़ों के उत्पादन और व्यवहार से देश की सम्पत्ति का नाश होता है। और सम्मात्त का नाश हाना मानों पूंजी का नाश होना है। मजदूरों का पोपत पूँजी से ही होता है । जब बही न रहेगी तन मजदूरों का पापणा क्या होगा बाक ! गिलास-द्रव्य वरीदने से बीदनेवाले को हघिस पूरी हो जाती है उसे क्षणिक सुख मिल जाता है । बस, और कुछ नहीं होता । ऐसे क्षणिक सुन के लिए देश की सम्पत्ति का नाश करना समझदार आदमी का काम नहीं।

पूँजी की अथोत्पादक शक्ति ।

पुँजी इसी लिए लगाई जाती है जिसमें अर्थ की उत्पत्ति हो जिसमें सम्पत्ति पैदा हो । पर सम्पत्ति हमेशा एकसी नहीं पैदा होती । फनी कम पैदा होती है कभी अधिक। यदि बुद्धिमानी से उसका उपयोग किया जाय तो अधिक सम्पत्ति पैदा होती है, अन्यथा कम । वलुई जमीन में चाहे कोई जितनी खाद डाले और चाहे जितना पानी दे, गे? की पैदावार कमी अच्छी न होगी । अर्थात् जो पूँजी लगाई जायगी उसका अच्छा बदला न मिलेगा। यही पूँजो यदि उर्बरा जमीन में लगाई जाय तो उसकी उत्पादक शक्ति जरूर चढ़ जायगी। अतएव समझ बूझ कर काम करने से–धुद्धिमानी से पूँजी को उपयोग में लानेखे-उसकी उत्पादक शक्ति बढ़ जाती है। जितनी ही अधिक बुद्धिमानी से काम लिया जायगा उतनीही अधिक उसकी उत्पा- दक शक्ति बढ़ेगी। व्यापार और खेतो आदि में जो पूँजी लगाई जाती है. श्रुद्धिमानी. तजरुय और दूरन्देशी से उसकी उत्पादक शक्ति बढ़ जाती है। श्रम और पूंजी का अखण्ड संयोग है। सहद, सदाचारशील, निपुण और चिश्वासपात्र मजदूरों से जैसे श्रम की उत्पादक शक्ति बढ़ जाती है वैसे ही पूंजी की भी बढ़ जाती है । शिक्षित मजदूरों का आचरण औरों से