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पूँजी।

अर्थात् पकही दफे वर्च होने से जिसका बदला मिल जाता है। दूसरी बह जो धीरे धीरे खर्च हुआ करती है। उदाहरण के लिए भट्टी में जलाने का कोयला | जो लोहार फाल, कुल्हाड़ी आदि बनाता है उसके लिए कोयला पूंजी है । वह एक ही दफे जल कर खाक हो जाता है । दुबारा काम का नहीं रहता। इससे कोयले की तरह एकहो दफे के उपयोग से नष्ट हो जानेवाली पूजी का नाम है चल, अस्थिर. अस्थायी था भ्राम्यमान । इस तरह की पूँजी धनोत्पादन के लिए सिर्फ एक दफे काम आती है । अथवा यो कहिग फि वह सिर्फ एकही दफे उपयोग की जा सकती है। कारखानों में ईधन और मज़दूरी के लिए जो पूँजी खर्च होती है वह सब चल पूँजी है ।

जो पूँजी बहुत दिन तक काम देती है जो एकही दफे के उपयोग से नर्च नहीं हो जाती-उसे अचल, स्थिर या स्थायी पूजा उहते हैं । जिस मिहाई पर लोहार रोज़ काम करता है वह उसकी स्थायी पूँजी है। क्योंकि एकही दफ़ के उपयोग से घह नष्ट नहीं होने परसों काम देती है । रेल को गाड़ियां, यंजिन, सेशन, कारखानों को कलें और इमारत-ये सब स्थायी पूँजी के उदाहरण है।

नल पूंजी का बदला एकदम मिल जाता है । अचल का एकदम नहीं मिलता । जब तक प्रचल पूंजी काम में आती रहेगी तब तक धीरे धीरे बदला देतीही जायगी । जो वीज खेत में बोया जाता है वह चल पूंजी है। फसल कटतेही उसका बदला किसान को एक दम मिल जाता है । पर उसका हल और उसके बैल आदि स्थायी पूंजी है। उनका बरसों उपयोग होता है। अतएव एकदम उनका बदला नहीं मिलता। जब तक खेत में हल चलता है और जब तक चैल हल में जोते जाते हैं तब तक पैदावार में उनके बदले का अंश वरावर मिलता जाता है। इससे स्पष्ट है, कि चल पूँजी का बदला एकहो दफे में मिल जाता है, अचल पूँजी का बहुत दफे में।

चल पूँजो के विषय में एक बात और जानने लायक है । वह यह है कि ऐसी पूँजी का उतना बदला ज़रूर मिलना चाहिए जितना कि उसका मोल है । अर्थात् खर्च की गई चल पूँजी की जितनी कीमत थी उसके बदले में उत्पन्न हुए पदार्थ की कीमत भी कमले कम उतनी होनी चाहिए। यदि उत्तनी न होगी तो कोई इस तरह की चल पूँजी लगावेगा क्यों ? जो किसान वीज और मजदूरी में पाँच मन गल्ला खर्च करेगा उसे कम से कम इतना