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३३६ सम्पत्ति-शास्त्र इस देश में लगता है वह भी एक प्रकार का कर है जो व्यापारी साँभर यो पचभद्रा आदि से नमक मैंगते हैं उन्हें वहाँ पर सरकार के नमक का कर शुको देना पड़ता है। वे उस कर की रक़म के नमक की कीमत में शामिल करके खरीदारों से वसूल कर लेते हैं। एक पैसे का भी जो नमक मोल लेता है। उसे अधिक क़ीमत के रूप में कर देना पड़ता है। पर उसे यह नहीं मालूम होता कि वह ज़बरदस्ती उससे वसूल किया जारहा है। वह समझता है कि नमक का भचि ही यह हैं। और यदि समझ भी पड़ती है तो सिर्फ समझदार आदमियों के, जो जानते हैं कि सरकारी कर के कारण ही दमक महँगा बिक रहा है। इस तरह के कर से आदमी तभी बच सकता है जब ऐसी चीज़ों का बरतनी होड़ है । शराई, अफ़ीम आदि पर जो कर पढ़ता है उससे तो, इन चीजों का नरसना छोड़ देने से बचाव भी हो सकता है। पर नमक ऐसी चीज नहीं । उसके बिना काम नहीं चल सकता । अतएव इच्छा न रहने पर भी वह देना ही पड़ता है। अर्थात् वह जबरदस्ती घसूल किया जाता है । यही हाल और भी कितनेही करों का है ।। प्रज्ञा का वह रूपया जा सार्वजनिक लाभ के लिए लिया जाता है, और जिससे देने या लेने वाले का कोई ख़ास काम नहीं निकलता, उसी को कर कहना अधिक युक्तिसंगत है 1 हज़ार रुपये से अधिक अमिदनी धालों से जा कर लिया जाता है, और जिते ‘इन्कम टैक्स” कहते हैं, इसी तरह की है । भाल पर चुंगो लेकर उससे म्यूनिसिपल्ट नगर-निवासियों के लाभ के काम करती है। अपने चुंगी के मद्दल को भी कर कहना अधिक युक्तिपूर्ण है। पर यदि गवर्नमेंट हिन्दुस्तान की सरहद में कोई रेल बनावे, और प्रज्ञा से चसूल किया गया पथा उसमें लगादे, तो उसमें इसका विशैप स्वार्थ है , मजा का कम । अतएव वह "कर" की ठीक परिभापा में नहीं आ सकतः । हां, यदि, वह रेल फ़ौज्ञ या फ़ौज का सामान ले जाने के लिए नहीं, किन्तु व्यापार-वृद्धि के लिए बनाई जाय ते ति दूसरी है। उससे सर्वसाधारण को अधिक लाभ पहुँचेगा। कर हमेशा आदमियां हीं पर लगता है। अथवा यों कहिए कि करों का बोझ या असर हमेशा आदमियां ही पर पड़ता है। चीज़ों पर कर नाममात्र के लिए लगाया जाता है। क्योंकि चीज़ पर लगाया गया केर बिकने के समय ग्राहक से चल कर लिया जाता हैं। अर्थात् कर के कारया चीज़ों की क़ीमत बढ़ जाती है ।