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सम्पत्ति-शास्त्र।


छठा परिच्छेद । गवर्नमेंट की व्यापार-व्यवसाय-विषयक नीति ।। | हमारो गवर्नमेंट बन्धन-रहित, अर्थात् असंरक्षित, व्यापार के नियम का अनुसरण करती है। उसका वर्णन अगले परिच्छेद में किया जाय । परन्तु उसकी बातें अच्छी तरह समझ में आने के लिए इस देश के व्यापार से सम्वन्ध रखनेवाली गवर्नमेंट की नोति को आलोचना करना बहुत ज़रूरी है। इससे यह परिच्छेद लिखना पड़ा। इसमें जहाँ जहाँ हमने ईगलैड का नाम लिया है. वहाँ वहाँ अँगरेजों के द्वीप-समूह–६ गलैंड, स्काटलंड, अयरलंड और वेल्स सभी से मतलब है। हिन्दुस्तान की कला-कौशल-सस्यन्थिनी अचस्या इस समय बहुत ही शोचनीय हैं। उसकी औद्योगिक शक्ति यदि मृत नहीं है। म्रियमाण दशा कै अवश्य ही प्राप्त है। एक समय था--और इस समय के हुए सौ डेढ़ सौ बर्ष से अधिक नहीं हुए-जब इस देश के बने हुए ऊनी, सूनी और रेशम कपड़े के लिए प्रायः सारी रप लालायित था । इस व्यधसाय में फाई पश्चिमी देश भारतवर्ष को बराबरी नहीं कर सकता था। वस्त्रों के सिवा और भी कितनी ही चीजें ऐसी थीं जिनको पतनी थार५ कै भिन्न भिन्न ६ का होती थी । यह फा व्यापार' वधुत चढ़ा चढ़ा था। करा रुपये का भाल चिदेश जाता था । पर ईस्ट इंडिया कम्पनी का प्रभुत्व इस देश में चढ़ते ही उसका ह्रास शुरू हुआ । इंगलंड की पारलियामेट नै १७०% और १७२१ ईसवी में क़ानून बना दिया कि वहाँ का कोई आदमी हिन्दुस्तान के बने हुए कपड़े व्यवहार में न लावे । इस कानून की पाबन्दी न करने वाले के लिए दण्ड तक का विधान हो गया 1 फल यह हुआ कि कुछ दिन में इस देश का व्यापार-व्यवसाय नष्ट हो गया और इंगलंड़ के कारनेदारों की अन अ६ । वे लेाग उलटी भारत के ही अपना कपड़ा भेजने लगे। इस चिपस का सविस्तर मगन रमेशचन्द्र दत्त महाशय ने अपनी " इकनाभिक feta) 9 fazat eft" (Economic History of British India) नीम की पुस्तक में बड़ा योग्यता से किया है। उसका सारांश सुनिए । अट्ठारहवीं शताब्दी में ही नहीं, उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भी, हिन्दस्तान के माल को दबाने और विलायत के माल का खून प्रचार करने