लोगों को धान तकलीफ़ उठानी पड़ती। मान लीजिए कि एक आदमी
के पास अनाज है। उसके बदले में वह कपड़ा चाहता है। अब उसे कोई
पेसा आदमी सलाश करना पड़ेगा जिसके पास कपड़ा हो । कलाना
कीजिए, फि उसे ऐसा आदमी मिल गया; पर वह अपना कपड़ा दे कर
बदले में अनाज नहीं चाहता, बर्तन चाहता है। इससे उन दोनों को
अपनी अभीष्ट-सिद्धि के लिए और आदमी नलाश करने पड़ेंगे। इसी बखेड़े
को दूर करने के लिए रुपये पैसे का चलन चला है। वह सम्पत्ति का चिन्ह
मात्र है। वह सम्पत्ति के परिमाण का सूचक मात्र है। यदि रुपये पैसे
का चलन न चलता और किसी की सम्पत्ति का अन्दाज़ करना होता तो
पक सूई से लेकर उसके घर बाहर की सारी चीज़ों की फेहरिस्त बनानी"
पड़ती। पर रुपये पैसे के जारी होने से उन सब चीजों का परिमाण रुपये में
बसला दिया जाता है। इससे बड़ा मुभीता होता है। बहुत मेहनत बन
जाती है । इसी से यह कहने की चाल पड़ गई है कि अमुक आदमी इतने
हज़ार. या इतने लाख का मालिक है। यह उसकी सम्पत्ति की सिर्फ माप
हुई। इससे यह सूचित हुआ कि सम्पत्ति का वज़न या नाल बताने के लिए
रुपया वाँट का काम देता है।
रुपया-पैसा सिर्फ सभ्य देशों की व्यावहारिक चीज़ है। असभ्य जंगली आदमी अब तक रुपये पैसे का व्यवहार नहीं जानते । अब भी वे चीज़ों का बदला करते हैं । अफ़रोज़ा की कितनीही असभ्य जातियाँ पक्षियों के पर, चमड़ा, मोम, गोंद आदि दे कर सभ्य जातियों से अनाज, वस्त्र, शस्त्र और कांच के मनफे आदि लेती हैं। उनमें, और, और भी कितनीही असभ्य जातियों में, विनिमय फी रोति वराबर जारी है। हिन्दुस्तान बहुत पुराना देश है। यहाँ की सभ्यता भी बहुत पुरानी है। पर यहां भी चीज़ों का विनिमय होता रहा है । इस बात के कितनेही प्रमाण अफेले एक- व्याकरण- शान में मिलते हैं । यथा :-