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विदेशी व्यापार । साधन व्यापारही है। इंगलैंड के देखिए घ्यापारही की वदौलत उसके पदव की वृद्धि हुई है। व्यापारही की साधना से उसे हिन्दुस्तान का राज्य प्राप्त हुआ है। व्यापारही की कृपा से अन्यान्य देशों के क़र्श देकर उन्ह अपने अनुग्रह का पात्र बनाने में वह समर्थ हुी हैं। और व्यापार में उन्नति न झनैहों से हिन्दुस्तान की अधोगति हुई है। दूसरी परिच्छेद । विदेशी व्यापार । प्रत्येक देश में यह बात मैग्नी जाती है कि एक आदमी अनेक व्यवसाय न करके सिर्फ एक हो चसाय करता है। अपने काम या परिश्रम के फल का चह उतनाहाँ अंश अपने व्यवहार के लिए रख छोड़ता है जितने की इसे ज़रूरत होती हैं । ब्राक़ों को विनिमय करके वह और अर अवश्यक चीजें संग्रह करता है । इसी तरह जिस देश में जो चीज़ ज़रूरत से अधिक हैंाती है बहू और देशों के भेजी जाती है, और उसके बदले उस देश की अावश्यक चीजें संग्रह को अरती हैं । गैहूं, जौ, चना, सरसों, कपास आदि चीजें जिस तरह गांवों से बड़े बड़े *सों और शहरों की रवाने होती हैं। और वहां से कपड़े, शक्कर, सूत और रंग आदि चीजें गांचों की जाती हैं, उसी तरह ये सब चीज़े शहरों से कलकत्ता, चंबई ग्रार कराची अादि धन्दरों में पहुंचती हैं और चहां से भिन्न भिन्न देशों के, वहां की चीज़ों के बदले भेजी जाती हैं । दुनिया में जितने सभ्य देश सब कहाँ यही बात देखी जाती है। रूस से मिट्टी का तेल और गेहूं इंगलेंद्र जाता है, इंगलैंड से कपड़े और लोहे की चीज़ रूस जाती हैं । हिन्दुस्तान से रुई, नील, लाल, गेहूं आदि गलैंड और जर्मनी के जाते हैं और वहां से लोहे के संघ, चाकू कैंची, काँध का सामान, कपड़े और विलौने आदि हिन्दुस्तान प्राते हैं । पदार्थों के इसी परस्पर अदला-बदल का नाम विदेशी-व्यापार है। यही अन्तर्जातिक बाणिज्य है । यही एक जाति को दूसरी जाति के साथ वस्तुविनिमय है । इसके अँगरेज़ी में इंटरनैशनल ट्रेड ( Internatio18sal 'J'ncle ) कहते हैं।