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शासत्व-विचार


और राज्यप्रबन्ध-विषयक कौन काम इस शास्त्र के सिद्धान्तों के अनुकूल हो रहा है और कौन प्रतिकूल । '

योरप और अमेरिका के प्रायः सभी देश स्वतन्त्र हैं। इससे, राज्य- व्यवस्था और व्यापार की बातों का विचार करने में, उन्हें अपने देश की सम्पत्ति की रक्षा और बुद्धि के उपाय सोचते रहने का हमेशा मौका मिलता है । इसी से उन देशों में सम्पत्ति शास्त्र पर सैकड़ों ग्रन्थ बन गये हैं और बनते जाते हैं। क्योंकि बिना सम्पत्ति की रक्षा और वृद्धि के न राज्य ही का प्रबन्ध अच्छी तरह हो सकता है और न व्यापार हो की उन्नति हो सकती है । अस्तु । हमारी आज कल जो स्थिति है उसमें रह कर भी प्रत्येक देशहित- चिन्तक का कर्तव्य है कि यह सम्पत्ति-शास्त्र के लिद्धान्तों का शान प्राप्त करे, और यदि हो सके तो उस ज्ञान-प्राप्ति के साधन औरों के लिए भी सुलभ करने की चेष्टा करे ।

दूसरा परिच्छेद ।

शास्त्रत्त्व-विचार

{gap}यह शास्त्र इस देश के लिप तो नया है हो, योरप और अमेरिका में भी इसकी उत्पत्ति हुए अभी कोई दोही हाई सौ वर्ष हुए 1 इसी से अभी इसके सिद्धान्त निश्चित नहीं हुए। उनमें अभी तक स्थिरता नहीं आई। नये भये सिद्धान्त निकलते जाते हैं। पुराने सिद्धान्तों में से कितनेहीं परित्यक्त हो गये, कितनेहीं परिवर्तित हो गये, कितनेही परिमार्जित होकर प्रायः एक नये ही रूप में स्वीकृत हो गये । इसी से कोई कोई विद्वाम् प्रस विषय को शास्त्रत्व पदघो के लायक नहीं समझते । उनकी राय में यह कोई नया शाल नहीं, यह कोई नई विद्या या विज्ञान नहीं । यह केवल व्यावहारिक वातों के विचार की स्त्रिचड़ी है । वे कहते हैं कि शास्त्रीय सिद्धान्त सदा अचल होते हैं । जो बातें अचल और निश्चित नहीं वे सिद्धान्तयत् नहीं मानी जाती । आग का धर्म जलाना है। उसे चाहे जो छुचे, जरूर जल जायगा । अतएन यह एक सिद्धान्त हुआ कि आग में दाहिका शक्ति है। जिस विषयं का आधार ऐसे सिद्धान्त हो, उसो की गिनती शास्त्र में हो सकती है । सम्पत्ति-सम्बन्धी बाते ऐली नहीं । क्योंकि