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व्यवसाय समिति ।


देश में शायद एक भी नहीं है । पर होने की जरूरत है । "चेस्बर आ कामर्स" नामक व्यवसायियों के समुदाय को यदि इस तरह के समाजों में कोई गिने तो गिन सकता है । कलकचे के व्यवसायी मारवाड़ियों का समाज भी कुछ कुछ इसी तरह का है। इस देश में व्यापार-व्यवसाय की अब धीरे धीरे उन्नति हो रही है। अतएव मजदूरों के हक की रक्षा के लिए व्यवसाय-समितियां, किसी न किसी दिनयहां भी जरूर ही स्थापित होंगी। इस समय तो किसी किसी पेशे से सम्बन्ध रखने वाले चौधरी ही यहां अधिक देख्ने जाते हैं। बही लेग कभी कभी पका कर के अपने पेशे के भादमियों की उजरतें बढ़ाने या पूर्ववत् वनी रखने की कोशिश करते हैं। फ्रांस, जर्मनी, इंगलैंड और अमेरिका मादि देशों में व्यवसाय-समितियों का बड़ा ज़ोर है 1 चहां लोहे, लकड़ी, चमड़े, कोयले, कपड़े आदि के व्यबसायों में लगे हुए श्रमजीवियों ने अपनी अपनी समितियां चना रस्त्री हैं। यहां तक कि डाकुरों, वकीलों और यजिनियरों तक ने एका करके अपने अपने समाज बना लिये हैं। प्रत्येक व्यवसाय के मादमियों का समाज अलग अलग होता है । इसके सभासद होने के लिए पहले कुछ फीस देनी पड़ती है, फिर हर हफ्ते या हर महीने, हर आदमी को कुछ चन्दा देना पड़ता है। इस तरह की समितियों से मजदूरों पौर अन्यान्य श्रमजीवियों को बहुत लाभ होता है । मज़दूर लोग प्रायः अपढ़ होते हैं, कायदे कानून से वाकिफ नहीं होते । फिर निर्धन होते हैं। इस कारया अपने धाजयो हक्कों को पाने के लिए भी पूजी वालों से झगड़ा नहीं कर सकते । क्योंकि यदि पूंजी बाले कारखानेदार उन्हें काम से छुड़ा दें तो बेचारों को भूखों मरने की नौबत पावे । परन्तु अपने व्यवसाय की समिति का सभासद् हो जाने से ये डर दूर हो जाते हैं। समिति के कार्यकर्ता सभासदों के हकों के लिए पूँजी वालों से बाकायदा लड़ते हैं, उनकी उजरत बढ़ाने पर काम के घंटों को कम करने की कोशिश करते हैं : और यदि पूँजी वाले श्रमजीषियों की उजरत कम करना चाहें तो पैसा न होने देने के लिए यथाशक्ति उपाय करते हैं। यदि किसी कारण से किसी सभासद को कुछ दिन बेकार धैठना पड़े, या बीमारी के कारण वह काम पर न जा सके, तो समिति की तरफ़ से उसे एक निश्चित रकम दी जाती है जिससे उसे खाने कपड़े के लिए मुहताज नहीं होना पड़ता। इसके सिवा यदि किसी सभासद् की मृत्यु