पृष्ठ:सम्पत्ति-शास्त्र.pdf/२११

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१२ सम्पति-शास्त्र । दूसरा परिच्छेद । व्यवसायी कम्पनियां अथवा सम्भूय-ससुरयान । ग्लाईन घारलो, एम० ए०, नाम के एक साहब मद्रास-भान्त में पालबाट नगर के विकोरिया कालेज में प्रधान अध्यापक हैं। अपने औद्योगिक भारतवर्ष" (1nctusPital Iristia ) नाम की एक पुस्तक अंगरेज़ी में लिखा है। उसमें मिल जुलकर काम करने, अर्थात् सम्भूय-समुत्यान, फ्र अपने अच्छा विचार किया है। आपही के लेख के आधार पर एक लेख जून १९०७ की "सरस्घती' में प्रकाशित हुआ है। यहां पर हम इस लेख को मुफ्यांश उद्धृत करते हैं। मिल जुलकर काम करने में बड़ी शक्ति हैं। जिस कामं की अकेला दमी नहीं कर सकता, कई आदमी मिल कर सुगमता से कर लेते हैं। विचारपूर्धक देब्रा जाय तो हिन्दुस्तान में, शहरों को जाने दीजिए, हज़ारों गांव ऐसे मिलेंगे जहां व्यापार-व्यवसाय र शिल्प की उन्नति सहज में हो सकता है । परन्तु एक आदमी अकैले किसी बड़े काम का नहीं कर सकता गौर ने एक आदमी के पास इतना रुपयाही होता है कि वह बिना किसी की मदद के खुदही उसे चला सके । ऐसे अवसर पर हमें कम्पनियाँ खड़ी करके काम करना चाहिए । कुछ आदमियों को मिलकर, अपनी अभीष्टसिद्धि के लिए, चन्द्र के द्वारा पूँजी इकट्ठा करनी चाहिए । इसके बाद कुछ प्रतिष्ठित और पुरुषार्थी मनुष्यों की एक प्रवन्धकार कमिटी चना लेनी चाहिए । और एक योग्य और तञ्जधैिकार अादमी की उसका अधिष्ठाता नियत करके उसी के कम्पनी का काम चलाने का भार देदेना चाहिए । प्रबन्धकारि कमिटी के सभासद् कम्पनी के जमाखर्च की निगरारानी किया करें, जिसमें रुपये पैसे के मामले में गोलमाल न छौ । इस प्रकार जहाँ जैसी आवश्यकता है। कम्पनियां बड़ी करके कोई भी काम या कारखाना सुगमता से चलाया जा सकता है और वहाँ के मृतप्राय उद्योग-धन्धों का पुनरूजीधन किया जा सकता है।