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सम्पत्ति-शास्त्र।

है। अतएव यदि बंगाल में ब्रह्मा से चावल जाय और ब्रह्मा में बंगाल से जूट तो दोनों को बहुत लाभ हो। परन्तु यदि बंगाली चावल और ब्रह्मा वाले जूट पैदा करने की कोशिश करेंगे तो दोनों में से किसी को लाभ न होगा, और होगा तो बहुत कम। क्योंकि कोई कोई चीज़ें ऐसी हैं जो देश, काल और अवस्था आदि के अनुसार किसी देश या प्रान्त विशेषही में अच्छी और किफ़ायत के साथ पैदा की जा सकती हैं, सर्वत्र नहीं। अतएव सम्पत्ति का सदुपयोग तभी होगा जब ऐसीही चीज़ें पैदा की जायँगी। व्यवहार की जिन चीज़ों के पैदा करने में अधिक ख़र्च पड़ता है, अर्थात् जो महँगी बिकती हैं, उन्हें ख़ुद न पैदा करके, थोड़ी लागत से पैदा करनेवाले और देशों या प्रान्तों से लेना चाहिए, जिसमें सस्ती मिलें।

हिन्दुस्तान में जो सम्पत्ति पैदा होती है, उपभोग किये जाने बाद, उसका कुछ भी अंश बाक़ी रह जाता है या नहीं, इसमें संदेह है। यदि रहता भी होगा तो बहुत कम। क्योंकि यदि अधिक बचत होती तो एकही साल की अनावृष्टि या अल्पवृष्टि से विकराल दुर्भिक्ष न पड़ता और हज़ारों आदमी भूखों न मर जाते। अतएव हम लोगों को अपनी सम्पत्ति का उपभोग बहुत समझ बूझ कर करना चाहिए। पाश्चात्य शिक्षा और सभ्यता के संघर्ष से हमारी भोगवासना जो बढ़ रही है उसे कम करना चाहिए। क्योंकि, एक तो देश में सम्पत्ति नहीं, दूसरे पाश्चात्य देशों का ऐसा व्यापार-व्यवसाय नहीं, जिससे उसके बढ़ने की उम्मीद हो। तिसरे सब चीजें महँगी होती जाती हैं। इस दशा में यदि भोग लालसा बढ़ती जायगी तो परिणाम बहुतही भयङ्कर होगा। इंगलैंड में एक आदमी की सालाना आमदनी का औसत ६०० रुपये है। पर हिन्दुस्तान में क्या है, आप जानते हैं? सिर्फ ३० रुपया साल! फिर आपही बतलाइए, यदि हम लोग अपनी भोग-लिप्सा बढ़ावें तो किस बिरते पर? हमें चाहिए कि मोटा खायँ, मोटा पहनें और मोटा काम करके सम्पत्ति की रक्षा और वृद्धि करें। जो धनवान् हैं उन्हें यह न समझना चाहिए कि यदि उन्होंने अपनी सम्पत्ति का अकारण उपभोग किया तो उससे औरों की हानि नहीं। हानि ज़रूर है। यदि सम्पत्ति का व्यर्थ उपभोग न करके उसे वे किसी काम-काज में, किसी उद्यम-धन्धे में, लगावेंगे तो उससे कितनेही आदमियों को लाभ पहुँचेगा—कितनेही आदमियों का पेट