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छठा भाग।

सम्पत्ति का उपभोग।

समञ्वय क्यों किया जाता है? सम्पत्ति क्यों उत्पन्न की जाती है? सिर्फ़ इस लिए कि वह काम आवे—उसका उपभोग हो। पर सब काम एक तरह के नहीं होते। सम्पत्ति का उपभोग अनेक प्रकार से हो सकता है। सौ रुपये की आतशबाज़ी पाँच मिनट में उड़ा देने से भी सम्पत्ति का उपभोग होता है। और सौ रुपये के कपड़े बनवाकर पाँच वर्ष तक पहनने से भी सम्पत्ति का उपभोग होता है। परन्तु दोनों में अन्तर हैं। पहले प्रकार के उपभोग से तो सौ रुपये ज़रा देर में बरबाद हो जाते हैं। पर दूसरे प्रकार के उपभोग से मनुष्य की एक बहुत बड़ी ज़रूरत रफ़ा होती है, सो भी एक या दो दिन के लिए नहीं, बरसों के लिए। सम्पत्ति को काम में लानाही चाहिए—उसका व्यवहार करना ही चाहिए। सम्पत्ति में उपकार करने की—फ़ायदा पहुँचाने की—जो शक्ति है वह व्यवहार करने से ज़रूर कम हो जाती है। पर यदि उसका व्यवहार न किया जाय तो वह व्यर्थ जाती है। इस लिए व्यवहार ज़रूर करना चाहिए, पर इस तरह कि व्यवहार करनेवाले को अधिक दिन तक फ़ायदा पहुँचे।

मनुष्य को हमेशा मितव्ययी होने की कोशिश करना चाहिए। उसे सोचना चाहिए कि जिस चीज़ के लेने की मुझे इच्छा है उसकी ज़रूरत भी है या नहीं। किसी चीज़ को सिर्फ़ उसके अच्छेपन के कारण न लेना चाहिए। उसकी ज़रूरत का ख़याल करके ही लेना चाहिए। यदि उसकी ज़रूरत नहीं है, तो चाहे वह जितनी अच्छी हो उसे लेना मुनासिब नहीं। सम्पत्ति बिना ज़रूरत फेंक देने की चीज़ नहीं।

कुछ चीज़ें ऐसी हैं जो एक ही बार व्यवहार करने से नष्ट हो जाती हैं; कुछ अनेक बार व्यवहार करने से भी नष्ट नहीं होती—बरसों चलती हैं। खाने पीने की जितनी चीज़ें हैं ये एक ही दफ़े के व्यवहार से नष्ट हो जाती हैं। पर इन चीज़ों का उपयोग करना हो पड़ता है। इनके उपभोग के लिए